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________________ इन्द्र की पराजय कुल को कलंकित किया है । तुम्हारे मुंह से ऐसी अशोभनीय बात की स्वीकृति कैसे हुई ?" “आर्य ! शुद्ध हृदय से कही गई बात से कलंक नहीं लगता । उपरंभा को आने दो। उससे विद्या प्राप्त करो और शत्रु पर विजय प्राप्त कर के उसे युक्तिपूर्वक समझा कर लौटा दो। इससे हमारा काम भी बन जायगा और नीति भी अक्षुण्ण रह जायगी"-- विभीषण ने कहा। रावण ने विभीषण की बात स्वीकार की । थोड़ी देर में उपरम्भा वहाँ आ पहुँची और रावण को आशाली विद्या दे दी, साथ ही अन्य कई अमोघ शस्त्र--जो व्यन्तर-रक्षित थे, रावण को दिये । रावण ने उस विद्या का प्रयोग कर के अग्नि-प्रकोष्ट को समाप्त कर दिया और सेना सहित नगर पर चढ़ आया। नलकूबर ने रावण की सेना का सामना किया, किन्तु विभीषण ने उसे दबोच कर बंदी बना लिया और उसका सुदर्शन चक्र भी ले लिया। नलकूबर के आधीन हो कर क्षमा याचते ही रावण ने उसे छोड़ दिया और उसका राज्य उसे लौटा दिया । रावण ने उपरम्भा से कहा “भद्रे ! तू कुलांगना है । तुझे अपने उच्चकुल की रीति-नीति का प्राणपण से पालन करना चाहिए । तुने मुझे विद्यादान दिया है, इसलिए तू मेरे लिए गुरु स्थानीय है। इसके अरिक्ति में पर-स्त्री का त्यागी हूँ। तू मेरी बहिन के समान है। अब तू अपने पति के पास जा।" इस प्रकार कह कर उसे नलकूबर को दे दी। नलकूबर ने रावण का बहुत सत्कार किया। विजयी रावण और सेना वहाँ से प्रस्थान कर गई। इन्द्र का पराजय नलकबर पर विजय पा कर, रावण की सेना रथनूपुर नगर की ओर गई । रावण की शक्ति और सैन्य-बल का विचार कर के राजा सहस्रार ने (जो उस समय संसार में ही थे) अपने पुत्र इन्द्र से कहा-- "पुत्र ! तुम परम पराक्रमी हो । तुमने अपने वंश की राज्यश्री में वृद्धि की है। दूसरों का राज्य जीत कर अपने राज्य में मिलाया है। दूसरे राजाओं के प्रताप का हनन कर के अपना प्रभाव जमाया है । इस प्रकार तुम्हारे शौर्य, पराक्रम और प्रताप से हमारा वंश गौरवान्वित हुआ है । अब तुम्हें समय का विचार कर के ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो सुखकारी हो और प्राप्त सिद्धि सुरक्षित रहे ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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