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तीर्थकर चरित्र
"वत्स ! समय सदा एकसा नहीं रहता। संसार में कभी किसी का पुण्य-प्रताप बढ़ता रहता है, तो कभी घटता भी है । समय-समय बल-वीर्य पराक्रम और प्रभाव में अधिकता वाले मनुष्य होते रहते हैं। मैं सोचता हूँ कि अभी रावण का पुण्य-प्रताप उदयवर्ती है। उसने अनेक राजा-महाराजाओं पर विजय पाई है । वह चढ़ाई कर के आ रहा है। मेरी सम्मति है कि तुम रावण का आदर-सत्कार कर के तुम्हारी रूपमती पुत्री का लग्न उसके साथ कर दो। इससे परम्परागत वैर भी नष्ट हो जायगा और अपना गौरव भी बना रहेगा ! प्रचण्ड दावानल के सामने जाना हितकारी नहीं होता। इसलिए तुम उसका सत्कार करने की तैयारी करो।"
पिता की बात इन्द्र को रुचिकर नहीं हुई । उसका क्रोध शान्त नहीं होकर विशेष उन हुआ । उसने अपने पिता से कहा ;--
"पिताजी ! वध करने योग्य शत्रु रावण का में सत्कार करूँ और पुत्री दूं ? आप कैसी अनहोनी बात कर रहे हैं ? वह तो हमारा परम्परा का वैरी है । आप किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करें । जैसी उसके पितामह की दुर्गति हुई, वैसी ही उसकी भी होगी।"
_इन्द्र, अपने पिता की सम्मति आक्रोशपूर्वक ठुकरा रहा था कि रावण का दूत आया और कहने लगा;
“मेरे स्वामी, महाराजाधिराज दशाननजी की प्रबल शक्ति, अपरिमित बल एवं उत्कट प्रताप से अभिभूत हो कर अन्य राजाओं ने, महाराजाधिराज का सम्मान कर के अधीनता स्वीकार कर ली । अब वे अपने दलबल सहित यहाँ आये हैं और आपके नगर के वाहर स्थित हैं। यदि आप भी उनका स्वामित्व स्वीकार कर लेंगे, तो सुरक्षित रह कर राज्य-भोग कर सकेंगे, अन्यथा आप उनके कोपानल में नष्ट हो जावेंगे ! आप अपना हित सोच लें और उचित का आदर करें ।"
दूत का सन्देश सुन कर इन्द्र का कोप विशेष बढ़ा। उसने दूत से कहा;--
“दूत ! दशानन का काल उसे यहाँ खींच लाया है। निर्बल और सत्वहीन राजाओं पर विजय पाने से उसका अभिमान बढ़ गया । अव उसका घमंड उसे विनाश के निकट ले आया है। अब भी यदि उसमें विवेक है तो मेरी भक्ति कर के अपनी रक्षा कर ले । अन्यथा मेरी शक्ति उसे यहीं नष्ट कर देगी । जा, तू अपने स्वामी से मेरा आदेश शीघ्र सुना दे।"
दूत ने इन्द्र की वात रावण को सुनाई । दोनों ओर की सेना युद्ध में संलग्न हो
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