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सहस्र परिव्राजकों की प्रव्रज्या
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ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग वाला हूँ । आत्म- प्रदेशों की अपेक्षा में अनेक हूँ और अक्षय भी हूँ, अव्यय भी हूँ और अवस्थित भी हूँ। क्योंकि प्रदेशों का कभी सर्वथा क्षय नहीं होता और न कुछ प्रदेशों का व्यय होता है । समस्त प्रदेश अवस्थित हैं । उपयोग की भूत, भविष्य और वर्तमान पर्यायों की अपेक्षा में अनेक भूत भाव और भावी युक्त हूँ " - अनगार भगवंत ने परिव्राजक की प्रश्नावली का यथार्थ उत्तर प्रदान किया ।
सहस्र परिव्राजकों की प्रव्रज्या
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परिव्राजकाचार्य शुक का समाधान हो चुका। वे समझ गए कि इन अनगार- महर्षि की संयम यात्रा और ज्ञान-गरिमा उत्तम है, निर्दोष है और अभिवन्दनीय है । मुझे सत्य का आदर करना चाहिये । उन्होंने अनगार महात्मा की वन्दना की, नमस्कार किया और निवेदन किया -- " भगवन् ! मुझे अपना धर्म सुनाइये । मैं आपके धर्म का स्वरूप समझना चाहता हूँ ।"
अनगार भगवंत ने निर्ग्रथ-धर्म का स्वरूप समझाया । धर्मोपदेश सुन कर शुकदेवजी हर्षित हुए । उन्होंने कहा--" भगवन् ! में अपने एक सहस्र परिव्राजकों के साथ आपके समीप मुण्डित हो कर प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।"
करो " -- अनगार भगवंत ने कहा ।
" देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा शुकदेवजी अपने सहस्र परिव्राजकों के साथ ईशान कोण की ओर गए और अपने परिव्राजक सम्बन्धी उपकरणों और वस्त्रों को एक ओर रख कर अपनी-अपनी शिखा का लंचन किया और अनगार भगवंत के समीप आ कर प्रव्रज्या स्वीकार की। फिर जानादि की आराधना करने लगे। श्री शुक मुनिराज भी चौदह पूर्व के पाठी बन गये । इसके बाद थावच्चापुत्र मुनिराज ने उन्हें एक सहस्र शिष्य प्रदान किये । वे ग्रामानुग्राम विचरने लगे ।
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थावच्चापुत्र अनगार की मुक्ति
धर्म की साधना करते हुए यावच्चापुत्र अनगार ने, अन्तिम आराधना का अवसर जान कर अपने सहस्र शिष्यों के साथ पुंडरीक - गिरि पर चढ़े । उस एकांत-शांत स्थान पर पहुँच कर आप सभी ने पादपोपगमन किया और एक मास के संथारे के बाद सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए।
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