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शैलक - राजर्षि की दीक्षा
निर्ग्रथाचार्य श्री शुकदेवजी अपने शिष्यों के साथ शैलकपुर के उद्यान में पधारे । शैलक नरेश और प्रजाजन, अनगार-भगवन्तों की वन्दनार्थ आये । आत्रायं भगवन्त का उपदेश सुन कर शैलक नरेश संसार से विरक्त हुए । उन्होने आचार्यश्रा से निवेदन किया-! मैं संसार त्याग कर श्रीचरणों में निग्रंथ प्रव्रज्या अगीकार करना चाहता हूँ । पहले में राज्य के पंथक आदि पाँच सौ मन्त्रियों से पूछ कर, मंडुक कुमार को राज्य का भार दे दूं, फिर आपश्री से निर्ग्रथ-दीक्षा ग्रहण करूंगा।”
"" भगवन्
'जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो । धर्म-साधना में विलम्ब नहीं
गुरुदेव ने कहाकरना चाहिये।"
शैलक नरेश ने स्वस्थान आ कर अपने मन्त्रि मण्डल से कहा--" देवानुप्रियो ! अनगार भगवंत का उपदेश सुन कर में संसार से विरक्त हो गया हूँ। अब मैं आचार्य भगवंत के समीप दीक्षित हो कर अनगार-धर्म का पालन करना चाहता हूँ। बोलो, तुम्हार क्या इच्छा है ?”
राज्य का मन्त्रि मण्डल राजा का मित्र मण्डल भी था । वे सभी स्नेह-ग्रन्थी से जुड़े हुए थे । न्याय-नीति और धर्मयुक्त उनका जीवन था । अर्थ एवं काम-लोलुपता उनमें नहीं थी। वे राज-काज में राजा के माग-दर्शक थे। राजा उन मन्त्रियों की आँखों से देखता था -- उनकी सुलझी हुई दृष्टियुक्त परामर्श का आदर करता हुआ राज्य का संचालन करता था। राजा का अभिप्राय सुन कर, पंथकजी प्रमुख है जिसमें -- ऐसे पाँच सौ मन्त्रियों ने विचार किया। संसार के दारुण दुःखों का भय तो उन्हें भी था ही। वे सभी राजा का अनुसरण करने के लिए तत्पर हो गए और एकमत से राजा से निवेदन किया
"यदि आप संसार का त्याग कर के निग्रंथ-धर्म की परिपूर्ण आराधना करना चाहते हैं, तो हम संसार में रह कर क्या करेंगे ? हमारे लिये आधार ही कौन-सा रह जायगा ? किस के सहारे हम रहेंगे ? यह संसार तो हमारे लिये भी दुःखदायक है और हमें भी इसका त्याग कर के धर्म की आराधना करनी है। हम आपको नहीं छोड़ सकते । इसलिये हम सब आपके साथ निर्ग्रथ प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे और जिस प्रकार हम संसार में आपके साथ रह कर मार्ग-दर्शन करते रहे. उसी प्रकार धर्माचरण में भी साथ रह कर आपके लिये चक्षुभूत होंगे ।"
"देवानुप्रियो ! यदि तुम सभी अनगार-धर्म धारण करना चाहते हो, तो अपने-अपने घर जाओ और कुटुम्ब का भार ज्येष्ठ पुत्र को प्रदान कर दो, फिर शिविकारूढ़ हो कर
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