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६४२ ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककत
तीर्थङ्कर चरित्र
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"भगवन् ! कुलत्था भक्ष्य है"--एक नया प्रश्न । "कुलत्था भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी।" "यह कैसे"--प्रतिप्रश्न ।
"कुलत्था के दो भेद हैं--, स्त्री-कुलत्था और २ धान्य-कुलत्था । स्त्री-कुलत्था के तीन भेद हैं-१ कुलवधू २ कुलमाता और ३ कुलपुत्री । कुलत्था के ये तीनों भेद अभक्ष्य हैं।
धान्य-कुलत्था के दो भेद हैं--१ शस्त्र-परिणत और २ अशस्त्र-परिणत । अशस्त्रपरिणत तो अभक्ष्य है ही। शस्त्र-परिणत भी दो प्रकार के हैं--प्रासुक (अचित्त) और अप्रासुक (सचित्त)। अप्रासुक अभक्ष्य हैं। प्रासुक भी दो प्रकार के हैं--याचित और अयाचित । अयाचित त्याज्य है। याचित के दो भेद-एषणीय और अनेषणीय। अनेषणीय अभक्ष्य है । एषणीय के दो भेद -- १ साप्त और २ अप्राप्त । अप्राप्त अभक्ष्य और प्राप्त भक्ष्य है। हम ऐसे ही कुलत्थ को भक्ष्य मानते हैं, जो धान्य हो, शस्त्र-परिणत हो, प्रासुक हो, याचा हुआ हो, एषणीय हो और प्राप्त हो। शेष सभी अभक्ष्य है !"
"भगवन् ! मास आपके लिये भक्ष्य है या अभक्ष्य" ---परिव्राजकाचार्य ने नया प्रश्न उठाया।
--" देवानुप्रिय ! मास भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भो ।” --"किस प्रकार ?"
--"मास तीन प्रकार का है-१ कालमास-श्रावण-भाद्रपदादि २ अर्थमास-- चाँदी और सोने का मासा और ३ धान्यमास । इनमें से कालमास और अर्थमास तो अभक्ष्य है। अब रहा धान्यमास (उड़द)। इसका स्वरूप सरिसव और कुलत्था के समान है, अर्थात् शस्त्र-परिणत, प्रासुक, याचित, एषणीय और प्राप्त हो, तो भक्ष्य है, अन्यथा अभक्ष्य है।'
__ "भगवन् ! आप एक हैं ? दो हैं ? अनेक हैं ? अक्षय हैं ? अव्यय हैं ? अवस्थित हैं ? आप भूत, भाव और भावी हैं"--परिव्राजकाचार्य ने एक साथ इतने प्रश्न उपस्थित कर दिये। उनका अभिप्राय था कि यदि वे अपने को एक कहेंगे, तो में उन्हें दो बता कर पराजित कर दूंगा। वे 'दो' कहेंगे, तो मैं एक या अनेक आदि कह कर विजयी बन जाऊँगा । महर्षि थावच्चापुत्र अनगार बोले;--
"मैं एक भी हूँ, दो भी हूँ अनेक, अक्षय, अव्यय, अवस्थित तथा भूत भाव और भावी भी हूँ।"
---" यह कैसे हो सकता है कि आप एक भी हैं, दो भी हैं और अनेकादि भी हैं ?" —“देवानुप्रिय ! जीव-द्रव्य की अपेक्षा में एक हूँ। उपयोग की अपेक्षा में दो हूँ--
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