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सुमित्र और प्रभव
“बन्धु ! तुम मुझसे भी बात छुपा रहे हो, यह मैने अब जाना । तुम्हारे मन में मेरे प्रति वंचना क्योंकर उत्पन्न हुई"-राजा ने खिन्न हो कर पूछा।
"मित्र ! बात कहने के पूर्व मरना अच्छा है, फिर भी तुम्हारे सामने छुपाना नहीं चाहता। जब से मैने रानी वनमाला को देखा है, तभी से मेरे पापी मन में पाप उत्पन्न हुआ और उसी पाप ने मेरी यह दशा कर दी । क्या, ऐसी अधमाधम बात मेरे मुंह से निकलना उचित है"--दुःखपूर्वक प्रभव ने कहा ।
“मित्र ! तुम्हारे लिए मेरा राज्य और रानी ही क्या, यह जीवन भी अर्पण है। तुम प्रसन्न होओ। रानी तुम्हारे पास आ जायगी"-इतना कह कर सुमित्र चला गया।
रात्रि के समय वनमाला प्रभव के प्रासाद में पहँची। उसने कहा--"नरेन्द्र ने मझे आपके पास भेजी है। अब आप मुझे क्या आज्ञा देते हैं ?" रानी के निर्दोष मुख और राजा की अनुपम मित्रता देख कर प्रभव की पाप-भावना लुप्त हो गई । उसने रानी से कहा ;--
___ "माता ! धिक्कार है मुझ पापी, नीच एवं मित्र-द्रोही अधम को । मुझे पलभर भी जीवित रहने का अधिकार नहीं । सुमित्र तो आदर्श मित्र एवं सत्वशाली है । मुझ अधम पर उसका उत्कृष्ट प्रेम है । क्योंकि संसार में कोई भी मित्र, प्राण तो दे सकता है, परन्तु प्राण-प्रिया नहीं देता। यह महान् दुष्कर कार्य सुमित्र ने किया है । माता ! अब तुम शीघ्र ही अपने भवन में जाओ । इस पापी की छाया भी तुम पर नहीं पड़नी चाहिए"--खेद पूर्वक प्रभव ने कहा।
सुमित्र, प्रच्छन्न रह कर प्रभव की बात सुन रहा था। उसे अपने मित्र के शुभ विचार सुन कर प्रसन्नता हुई । रानी को प्रणाम कर के बिदा करने के बाद पश्चाताप से दग्ध प्रभव ने खड्ग निकाला और अपना मस्तक काट ही रहा था कि राजा ने प्रकट हो कर उसका हाथ पकड़ लिया और उसके मन को शान्त करने के बाद वहां से हटा । कालान्तर में सुमित्र नरेश प्रवजित हो कर संयम का पालन करने लगे और आयु पूर्ण कर ईशान देवलोक में देव हुए । वहां से च्यव कर यहां तुम मधु के रूप में उत्पन्न हुए।
प्रभव का जीव भव-भ्रमण करता हुआ विश्वावसु की ज्योतिर्मती पत्नी से श्रीकुमार नाम का पुत्र हुआ । उसने उस भव में निदान युक्त तप किया और मर कर भवनपति में चमरेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। मैं चमरेन्द्र अपने पूर्वभव के मित्र को देख कर स्नेहवश तुम्हारे पास आया हूँ । लो, मैं तुम्हें यह आयुध देता हूँ। यह त्रिशूल दो हजार योजन तक जा कर अपना कार्य कर के लौट आता है।
चमरेन्द्र का कहा हुआ वृत्तांत पूर्ण करते हुए राजकुमार मधु ने कहा--" महाराज!
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