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तीर्थङ्कर चरित्र
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ही भयाघात से उसके प्राण निकल गए और वह भूमि पर गिर पड़ा।
श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि यह सोमिल ब्राह्मण ही मेरे लघुबन्धु अनगार का घातक है । इसी दुष्ट ने सद्य प्रवजित अनगार की हत्या की है । उन्होंने सेवकों से कहा;--
" इस नराधम के पाँवों में रस्सी बाँध कर, चाण्डालों से घसिटवाते हुए नगरी के राजमार्गों पर फिराओ और इसके कुकृत्य को लोगों में प्रकट करो। फिर नगरी के बाहर फेंक दो और इस भूमि को पानी डाल कर धुलवाओ।" ।
ऐसा ही हुआ । श्रीकृष्ण उदास मन से अपने भवन में प्रविष्ट हुए।
मुनि श्र गजसुकुमालजी के वियोग का आघात बहुतों को लगा ! उनकी उठती युवावस्था और अस्वाभाविक नृशंसतापूर्ण हुई मृत्यु से वसुदेवजी को छोड़ कर शेष समुद्र. विजयजी आदि नौ दशाह और अनेक यादव भगवान् अरिष्टनेमि के सात सहोदर-बन्धु माता शिवादेवी, श्रीकृष्ण के अनेक कुमार और यादव-कुल की अनेक देवियों, महिलाओं और राजकुमारियों ने • भगवान् अरिष्टनेमिनाथ के समीप निग्रंथ-प्रव्रज्या स्वीकार की ।
श्रीकृष्ण ने निश्चय किया कि वे अपनी पुत्रियों को वैवाहिक-बन्धन में बाँध कर संसार के मोहजाल में नहीं उलझावेंगे और त्याग-मार्ग में जोड़ने का प्रयत्न करेंगे। इससे सभी राजकुमारियें प्रवजित हो गई। वासुदेवजी की कनकावती, रोहिणी और देवकी को छोड़ कर शेष सभी रानियाँ दीक्षित हो गई। रानी कनकावती को तो गृहवास में ही, संसार की स्थिति का चिन्तन करते-करते कर्मावरण शिथिल हो गए, क्षपक श्रेणी चढ़ कर घातीकर्म नष्ट हो गए और केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो गया। उन्होंने गृहस्थ-वेश त्याग कर साध्वी-वेश धारण किया और भगवान् के समवसरण में पधारी । उसके बाद एक मास का संथारा कर के निर्वाण प्राप्त किया।
वैर का दुर्विपाक
श्रीबलदेवजी का पौत्र और निषिधकुमार का पुत्र सागरचन्द अणुव्रतधारी श्रावक हुआ था । इसके बाद वह श्रावक-प्रतिमा की आराधना करने लगा । एकबार वह कायोत्सर्ग कर के ध्यान कर रहा था कि उसे नभःसेन ने देख लिया। नम:सेन कमलामेला के निमित्त से सागरचन्द के साथ शत्रुता रखता था और उससे वैर लेने का कोई निमित्त देख रहा
* ग्रंथकार ने इसी समय राजमती के भी प्रव्रजित होने का उल्लेख किया है। + पृष्ठ ५७४ पर।
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