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________________ ६२७ कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका गुण-प्रशंसा था। उसने सागरचन्द को देखा और उसके निकट आकर बोला ;--"दुष्ट, अधम ! अब धर्मात्मा बन कर बैठा है । तूने कमलामेला को मुझसे छिन कर, मेरे जीवन में आग लगा दी। अब तू भी इसका फल भोग ।" इस प्रकार कह कर उसने भी चिता के अंगारे, एक फूटे घड़े के ठीकरे में भर कर सागरचन्द के मस्तक पर रख दिये। सागरचन्द शान्तभाव से सहन करता हुआ धर्मध्यान में लीन रहा और आयुपूर्ण कर देवलोक में देव हुआ । गुण-प्रशंसा एक बार इन्द्र ने देव-सभा में कहा--" भरत क्षेत्र के कृष्ण-वासुदेव किसी भी वस्तु के दोषों की उपेक्षा कर के मात्र गुणों की ही प्रशंसा करते हैं और युद्ध में हीनतम नीति काम में नहीं लेते ।" इन्द्र के इन वचनों पर एक देव को विश्वास नहीं हुआ। वह श्रीकृष्ण की परीक्षा के लिये द्वारिका में आया। उस समय श्रीकृष्ण, रथ में बैठ कर वनक्रीड़ा करने जा रहे थे। उस देव ने मार्ग में एक मरी हुई काली कुतिया गिरा दी, जिसके शरीर में से उत्कट दुर्गन्ध निकल कर दूर-दूर तक पहुँच रही थी। पथिक लोग, दुर्गन्ध से बचने के लिये मुंह पर कपड़ा रखे हुए उस पथ से दूर हो कर आ जा रहे थे। उस कुतिया को देख कर श्रीकृष्ण ने कहा-“इस काली कुतिया के मुंह में दाँत बहुत सुन्दर है।" देव ने श्रीकृष्ण का अभिप्राय जान कर एक परीक्षा से संतोष किया। इसके बाद उसने स्वयं चोर का रूप धारण कर के श्रीकृष्ण के एक उत्तम अश्व-रत्न का हरण कर लिया। श्रीकृष्ण के अनेक सैनिक उस चोर को पकड़ने दौड़े और लड़े किन्तु उस चोर रूपी देव के सामने उन सैनिकों को हार खानी पड़ी। तब श्रीकृष्ण स्वयं चोर से युद्ध करने के लिए तत्पर हुए । उन्होंने चोर को ललकारते हुए कहा--"या तो तू इस अश्व को छोड़ दे, अन्यथा अपने जीवन की आशा छोड़ दे।" देव ने कहा--"अश्व उसी के पास रहेगा, जिसमें बल होगा और बल का निर्ण। यु द्वस्थल में होगा ।" श्रीकृष्ण ने कहा-"तू भी रथ में बैठ कर आ, फिर अपन युद्ध करेंगे।" देव ने कहा - "मुझे रथ या हाथी, किसी को भी जरूरत नहीं, मैं आपसे बाहु-युद्ध करना चाहता हूँ।" श्रीकृष्ण कुछ विचारमग्न हो कर बोले--"जा तू ले जा इस अश्व को ! मैं तुझ चोर से बाहयुद्ध करना नहीं चाहता। यह अधम यद्ध है।" श्रीकृष्ण की बात सुन कर देव संतुष्ट हुआ और अपने असली ! एक चोर के साथ पुरुषोतम वासुदेव का बाहु-युद्ध करना ‘अधम-युद्ध' कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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