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________________ ६२० ဖုန၉၉၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀၀ तीर्थङ्कर चरित्र अपने एक अनुज-बन्धु की आवश्यकता है।" देव ने उपयोग लगा कर कहा-- " देवानुप्रिय ! तुम्हारे छोटा भाई होगा । एक देव शीघ्र ही देवायु पूर्ण कर के तुम्हारी माता के गर्भ में आएगा । किंतु यौवन-वय प्राप्त होते ही वह भगवान् अरिष्टनेमि से प्रव्रज्या ग्रहण कर लेगा। तुम उसे संसार में नहीं रोक सकोगे।' भविष्य बता कर देव चला गया। श्रीकृष्ण पौषध पाल कर माता के समीप आये और बोले-- " माता ! मेरा छोटा-भाई अवश्य होगा और शीघ्र होगा। आप निश्चित रहें।" देवलोक से एक भव्यात्मा च्यव कर देवकी रानी के गर्भ में उत्पन्न हुई । सिंह के स्वप्न से उसकी भव्यता, उच्चता एवं शौर्यपूर्ण दढता का परिचय होता था। गर्भकाल पूर्ण होने पर एक सुन्दर सकूमार पुत्र का जन्म हआ। उसका शरीर जपाकुसुम के पुष्प और हाथी के तालु के समान वर्ण एवं सुकोमल था। उसका नाम 'गजसुकुमाल' दिया गया । वह माता-पिता एवं बन्धुवर्ग का अत्यन्त प्रिय था । देवकी देवी की अभिलाषा पूर्ण हुई । क्रमशः बढ़ते गजसुकुमाल कुमार ने यौवन अवस्था में प्रवेश किया। जिनेश्वर भगवान् अरिष्टनेमिजी ग्रामानुग्राम विचर कर भव्य जीवों का उद्धार करते हुए द्वारिका पधारे । श्रीकृष्ण-वासुदेव अपने अनुज-बन्धु गजसुकुमाल के साथ हस्ति पर आरूढ़ हुए और चामरछत्रादि तथा सेनायुक्त भगवान् को वन्दन करने के लिए चले। द्वारिका में 'सोमिल' नाम का एक ऋद्धि-सम्पन्न ब्राह्मण रहता था । वह ऋद्धिसम्पन्न समर्थ और वेद-वेदांगादि शास्त्रों का पारगामी था। उसकी पत्नी सोमश्री भी सुन्दर थी। उनके सोमा नामकी एक पुत्री थी। वह अत्यन्त रूपवती, उत्कृष्ट रूप लावण्य एवं शरीर-सौष्ठव की स्वामिनी थी। वह भी यौवन-वय में प्रवेश कर चुकी थी। एकबार वह विभूषित हो कर, अनेक सखियों और दासियों के साथ घर से निकल कर क्रीड़ा-स्थल पर गई और स्वर्णमय गेंद से खेलने लगी। श्रीकृष्ण-वासुदेव उसी मार्ग से हो कर भगवान् को वन्दना करने जा रहे थे । उनकी दृष्टि गेंद खेलती हुई सोमासुन्दरी पर पड़ी। वे उसका उत्कृष्ट सौन्दर्य देख कर चकित रह गए। उन्होंने उसका परिचय पूछा और अपने विश्वस्त सेवक को आदेश दिया--"तुम सोमशर्मा के पास जाओ और उसकी पुत्री की गजसुकुमाल के लिये याचना करो, तथा उसे कुंआरे अन्तःपुर में पहुँचा कर मुझे । श्री अंतगड सूत्र के मूलपाठ से गजसुकुमालजी बाल ब्रह्मचारी लगते हैं किन्तु त्रि श पु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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