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देवकी की चिन्ता xx गजसुकुमाल का जन्म
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को जन्म दिया तो क्या हुआ, इस परम सुख से तो में वंचित ही रही न ? क्या यह वैभव, यह राजसी उत्तम भोग, मेरे इस संताप को मिटा सकते हैं ? क्या मुझे उन दरिद्र-स्त्रियों जितना भी सुख मिला कभी, जिनकी गोदी में बालक कोड़ा कर रहे हैं और वे स्वयं उस बाल-क्रीड़ा में विभोर हो कर दरिद्र अवस्था में भी भरपूर सुख का अनुभव कर रही हैं ?"
देवकी देवी इन्ही विचारों में डूबी हुई थी कि श्रीकृष्णचन्द्रजी माता के चरण-वन्दन करने के लिए कक्ष में प्रविष्ट हुए। उन्होंने दूर से ही माता को चिन्तामग्न देख लिया था। चरण-वन्दन के बाद माता से पूछा ; ....
___ “मातुश्री ! आज आप किसी चिन्ता में मग्न दिखाई दे रही हैं। आज आपके श्री मुख पर पूर्व के समान प्रसन्नता नहीं है । क्या कारण हैं आपकी उदासी का ?"
"वत्स ! मैं अपने दुर्भाग्य पर संतप्त हूँ। मैने तुम्हारे समान सातपुत्रों को जन्म दिया, किन्तु एक की भी बाल-क्रीड़ा का सुख नहीं भोग सकी। छह पुत्र तो जन्म के साथ ही चुरा लिये गये । वे छहों भद्दिलपुर के नागदत्त की पत्नी सुलसा के यहाँ पले । मेरे पुत्रों को पा कर वह दुर्भागिनी मतवन्ध्या भाग्यशालिनी बन गई और उसके मृत-पुत्रों का संताप मुझे झेलना पड़ा । वे छहों पुत्र भ० अरिष्टनेमिजी के पास दीक्षित हुए और कल यहाँ भिक्षाचरी के लिये आये थे । इस रहस्य का उद्घाटन भगवान् ने किया, तब मैं जान सकी । पुत्र ! वे छहों मुनि ठोक तुम्हारे जैसे ही हैं । कहो, अब मैं कितनी दुर्भामिनी हूँ कि अपने जाये पुत्रों का मुंह भी प्रथमबार आज देख सकी और तुम्हारी बाल-लीला भी में नहीं देख सकी । तुम चुराये नहीं गये, किन्तु हमें चोरी छुपे तुम्हें दूर भेजना पड़ा और तुम नन्द और यशोदा को आनन्दित करते रहे। मैं तो यों ही रह गई । सात में से एक पुत्र की भी बाल-लीला का आनन्द नही भोग सकी और अब तुम भी छह महीने में एक बार मेरे पास आते हो। तुम ही सोचो कृष्ण ! तुम्हारी माता का संताप कितना गम्भीर है ? है कोई उपाय इसका ? कर सकोगे अपनी माता का दुःख दूर ?"--खेदपूर्ण स्वर में देवकी ने कहा।
-"हां, माता ! मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करने का प्रयत्न करूंगा। तुम चिन्ता मत करो । अब में इसी उपाय में लगता हूँ।"
___ इस प्रकार आशास्पद वचनों से माता को सन्तुष्ट कर श्रीकृष्ण वहां से चले और पौषधशाला में आये । फिर तेला कर के हरिणगमेषी देव की आराधना करने लगे। देव वा आसन कम्पित हुआ । वह पौषधशाला में आया। श्रीकृष्ण ने देव से कहा--" मुझे
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