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किस पाप का फल है ?
छहों मुनियों को वन्दना कर के लौटते समय देवकी के मन में विचार हुआ;-- "मैं कितनी दुर्भागिनी हूँ कि देव के समान अलौकिक सात पुत्र पा कर भी मैं इन छह पुत्रों से वञ्चित रही। क्या सुख पाया मैने इन छह पुत्रों का ? होना-न-होना समान ही रहा । मैने ऐसा कौन-सा पाप किया था कि जिसका फल मुझे इतना दुःख-दायक मिला । वह भगवान् से इसका खुलासा चाहती थी। भगवान् के समीप आ कर देवकी ने वन्दननमस्कार किया। भगवान् ने कहा ;--
--" देवानुप्रिये ! यह तुम्हारे पूर्व-बद्ध पापकर्म का फल है। तुमने पूर्वभव में अपनी सौत के सात रत्न चुरा लिये थे । जब तुम्हारी सौत रोने लगी, तब तुमने उसमें से एक रत्न लौटा दिया, किन्तु छह रत्न नहीं दिये । इसी का फल है कि तुम्हारा एक पुत्र तो तुम्हें पुनः मिल गया, परन्तु छह नहीं मिले।"
देवकी भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर के अपने पापों की निन्दा करती हुई लौटी और भवन में आ कर शय्या पर पड़ गई।
देवकी की चिन्ता xx गजसकमाल का जन्म
देवकी देवी चिन्ता-मग्न थी। वह सोच रही थी;
---"मैं कृष्णचन्द्र के समान लोकोत्तम अद्वितीय ऐसे सात पुत्रों की माता हूँ, फिर भी कितनी हतभागिनी हूँ कि एक भी पुत्र की बाल-क्रीडा का आनन्द प्राप्त नहीं कर सकी। वे माताएँ भाग्यशालिनी हैं जो अपने बालकों को गोदी में ले कर स्नेहपूर्ण दृष्टि से निरखती है, चूमती है और स्तनपान कगती है । बालक अपने छोटे-छोटे हाथों से माता के स्तस दबाता हुआ दूध और माता के स्नेह का पान करता है । माता उसे स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखती है। बालक दुग्धपान करता-करता कुछ रुक कर माता की ओर देखता हुआ हँसता है, किलकारी करता है और माता भी बालक को चूम कर छाती से लगा लेती है। झूले में झुलाती है । अंगुली पकड़ कर चलाती है। माता स्वयं बालक से साथ तुतलाती हई बोलती है और बच्चे की तोतती बोली सुन कर आनन्द का अनुभव करती है...........
धन्य हैं वे माताएँ जिन्हें अपने बालकों की बाल-क्रीड़ा का भरपूर सुख प्राप्त होता है । मुझ हतभागिनी जैसी दुःखियारी तो संसार में कोई भी नहीं होगी। मैं महाराजाधिराज और तीनखंड के अधिपति की माता हुई और सात-सात उत्तमोत्तम नर-रत्न पुत्रों
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