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________________ नारद की उत्पत्ति यज्ञ कुरुक्षेत्र आदि में बहुत से यज्ञ करवाए। इस प्रकार इस 'राजसूय यज्ञ' भी करवाए। उस महाकाल असूर ने को विमान पर बैठे हुए आकाश में दिखाए। इससे लोगों में पर्वत के मत की वृद्धि हुई । हिंसक यज्ञ बढ़े । सगर राजा भी जल-मरा । उसके मरने के बाद महाकाल असुर कृतार्थ हो कर अपने स्थान चला गया । " नारदजी ने कहा - " राजन् ! इस प्रकार पापी पर्वत के द्वारा इन हिंसक यज्ञों की उत्पत्ति हुई है । आपको इनकी रोक अवश्य करनी चाहिए ।" मत का प्रसार करके उसने होमे हुए उन राजा आदि विश्वास जमा और इससे अपनी रानी सहित यज्ञ में रावण ने नारदजी की उपरोक्त बात स्वीकार की और उनका सत्कार करके उन्हें विदा किया । Jain Education International ૪૨ नारद की उत्पत्ति नारदजी के चले जाने के बाद राजा मरुत ने रावण से पूछा -- " स्वामिन् ! यह परोपकारी पुरुष कौन था, जिसकी कृपा से मैं पापरूपी अन्धकूप से निकला ?" मरुत को नारद की उत्पत्ति बतलाते हुए रावण कहने लगा; - ―― "ब्रह्मरुचि नाम का एक ब्राह्मण था । वह घरबार छोड़ कर तापस बन गया था । तापस होने के बाद उसकी कुर्मी नाम की पत्नी गर्भवती हुई । कालान्तर में राह चलते 'कुछ श्रमण, उस तापस के यहां आ कर ठहरे । उन साधुओं में से एक ने तापस से कहा - ''तुम घरबार छोड़ कर बन में आ कर तप कर रहे हो, फिर भी तुम्हारी वासना -- स्त्री सहवास चालू है, फिर घर छोड़ कर बनवास करने का क्या लाभ हुआ ? ब्रह्मरुचि, साधु की बात सुन कर विचार करने लगा । उसे उनकी बात उचित लगी और साधु के उपदेश से प्रतिबोध पा कर उसने साधु-प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । उसकी पत्नी श्राविका हुई गर्भकाल पूर्ण होने पर उसके पुत्र का जन्म हुआ । जन्म के समय वह बच्चा रोया नहीं, इसलिए ( रुदन नहीं करने के कारण ) उस बच्चे का नाम 'नारद' रखा । कालान्तर में कुर्मी कहीं वाहर गई, बाद में जृंभक देव ने नारद का हरण कर लिया । पुत्र-वियोग से दुःखी हो कर कुर्मी ने, सती इन्दुमालाजी के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली । जृंभक देव ने नारद का पालनपोषण किया और शास्त्रों का अभ्यास भी कराया। उसके बाद नारद को आकाशगामिनी विद्या भी दी । नारद, श्रावक के व्रतों का पालन करता हुआ विचरने लगा । उसने मस्तक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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