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________________ तीर्थंकर चरित्र नगरी के पास नदी के तट पर उसने पर्वत - विप्र को देखा । वह तत्काल ब्राह्मण का बना कर उसके सामने आया और कहने लगा; 'मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूँ । मेरा नाम शांडिल्य | मैं और तेरे पिता, सहपाठी थे । हम दोनों उपाध्याय श्री गौतम शर्मा के पास साथ ही पढ़े हैं । अभी नारद ने और नगरजनों ने तेरा अपमान किया है । यह सुन कर मुझे दुःख हुआ और इसी दुःख से पीड़ित हो कर मैं तेरे पास आया हूँ । मैं मन्त्रवल से विश्व को मोहित कर के तेरे पक्ष को सबल बनाऊँगा । तू अपने पक्ष का साहस के साथ प्रचार करता रह ।" इस प्रकार महाकाल की शक्ति से पर्वत, हिंसक अर्थ को सफल करने वाले पशुवध रूपी यज्ञ का प्रवर्तन करने लगा । उसने बहुत से लोगों को मोहित करके अधर्म में लगा दिया। लोगों में व्याधि तथा भूतप्रेतादि के रोग उत्पन्न कर के पशु-यज्ञ रूप उपाय से उपद्रवों की शांति करने लगा। इस प्रकार लोकोपकार के बहाने, हिंसक यज्ञों का प्रचार किया । सगर राजा के अंतःपुर और परिवार में भी उस महाकाल ने भयंकर रोग उत्पन्न किये। राजा भी लोकानुसरण कर के पर्वत का सम्मान करके यज्ञ करवाने लगा । इस प्रकार शांडिल्य रूपी असुर की सहायता से पर्वत ने हिंसक यज्ञों द्वारा रोगों के उपद्रव को दूर किया । इसके बाद पर्वत, शाण्डिल्य के कहने से लोगों में प्रचार करने लगा कि --" सौत्रामणि-यज्ञ में विधिपूर्वक सुरापान करने से दोष नहीं लगता । गोसव नामक यज्ञ में अगम्या स्त्री के साथ गमन करना, मातृमेघ यज्ञ में मता का वध, पितृमेघ यज्ञ में पिता का वध, अन्तर्वेदी में करना चाहिए। यह सब निर्दोष है। कछुए की पीठ पर अग्नि रख कर बोल कर हुत द्रव्य से हवन करना । यदि कछुआ नहीं मिले तो गंजे सिर वाला, पीतवर्ण वाला, क्रिया- रहित और कुस्थानोत्पन्न किसी शुद्ध द्विजाति के जल से पवित्र किये हुए कुर्माकार मस्तक पर अग्नि प्रज्वलित करके उसमें आहुति देना । " 'जुज्वकाख्याय स्वाहा " -- इस प्रकार " जो हो गया है और जो होने वाला है, यह सभी पुरुष (ईश्वर) ही है । जो अमृत के स्वामी हुए हैं ( मोक्ष प्राप्त हैं ) और जो अन्न से निर्वाह करते हैं, वे सभी ईश्वर रूप ही हैं । इस प्रकार सभी एक पुरुष (ईश्वर) रूप ही है । इसलिए कौन किसे मारता है ? मरने और मारने वाला कौन है ? अतएव यज्ञ के लिए इच्छानुसार प्राणियों का वध करना और यज्ञ में यजमान को मांस भक्षण करना चाहिये । यह देवताओं द्वारा उपदिष्ट है और मन्त्रादि से पवित्र किया हुआ है ।" इस प्रकार समता कर सगर नरेश को अपने मत में सम्मिलित कर के उससे " ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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