SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकाल असुर का वृत्तांत कर । तेरे पिता और मेरे पिता की वंश-वेली, भ. ऋषभदेवजी के पूत्र भरत-बाहुबलि से प्रारंभ हुई है । तू भी उसी उज्ज्वज वंश में जाय--ऐसी मेरी इच्छा है । बोल, मेरी इस इच्छा को तू पूरी करेगा ?" राजकुमारी ने माता के वचन स्वीकार करके वचन दे दिया। यह बात पीछे खड़ी हुई मन्दोदरी ने सुन ली। वह तत्काल वहाँ से निकली और सीधी सगर नरेश के पास पहुँची और माता-पुत्री की बात बतलाई । राजा उसकी बात सुन कर चिंतित हुआ । मधुपिंग को किस प्रकार अपने मार्ग से दूर करना, इसका उपाय सोचते हुए उसने अपने पुरोहित विश्वभूति से 'राजलक्षण-संहिता' नामक काव्य-ग्रंथ शीघ्र रचने की आज्ञा दी, जिसमें इस प्रकार का निरुपण हो कि सगर, समस्त लक्षणों से युक्त और मधुपिंग राजलक्षणों से रहित माना जाय । विश्वभूति शीघ्र-कवि था। उसने तत्काल वैसी संहिता की रचना की और पुरातन ग्रंथ बताने के लिए एक पेटी में बंद करके उन राजाओं की सभा में लाया, जो स्वयंवर सभा में सम्मिलित होने आये थे। उसने उस संहिता को खोलते हुए कहा"यह राजलक्षण संहिता है । इसमें उन लक्षणों का वर्णन है--जो एक राजा में अवश्य होना चाहिए। जिसमें ये लक्षण नहीं हो, वह राज करने योग्य नहीं होता।" विश्वभूति की बात सुन कर सगर राजा ने कहा--"यदि किसी राजा या युवराज में राजा के योग्य लक्षण नहीं हो, तो उसका वध कर देना चाहिए, अथवा त्याज्य समझना चाहिए।" पुरोहित ने संहिता का वाचन प्रारंभ किया। उसमें लिखे सभी लक्षण, सगर में तो स्पष्ट दिखाई देते थे, किंतु मधुपिंग में एक भी लक्षण नहीं था। उसने अपनी पुस्तक में वैसे एक भी लक्षण का उल्लेख नहीं किया था, जो मधुरिंग में थे। संहिता के वाचन के अरान्त मधुपिंग ने अपने को अपम नित समझा और आवेश में सभा का त्याग कर गया। उसके हट जाने पर सुलसा ने सगर का वरण कर लिया और उसके साथ उसका लग्न हो गया। अपमानित मधुपिंग बालतप करके असुरकुमार देवों में, साठ हजार असुरों का स्वामी 'महाकाल' नामक असुर हुआ। उसने अपने अवधि (अथवा विभंग) ज्ञान से, अपने वैरी सगर राजा के निर्देश से विश्वभूति द्वारा निर्मित षडयन्त्र पूर्ण संहिता की वास्तविकता जानी। उसके हृदय में रोष उत्पन्न हुआ। उसने सोचा--'इन सभी राजाओं को मृत्यु के घाट उतार दूं'. वह उन राजाओं का छिद्र देखने लगा । एक बार सुन्तिमति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy