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धर्म देशना
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के साथ भोग करने को तत्पर हो जाता है । वह रोता, गाता, दौड़ता लोटता, कुद्ध होता, तुष्ट होता, हँसता, स्तब्ध रहता, झुकता, खड़ा रहता, यों अनेक प्रकार की क्रियाएं. नट की तरह करता हुआ भटकता रहता है।
जिस प्रकार प्राणियों के जीवन का सदैव भक्षण करता हुआ भी यमराज तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार बारम्बार नशा करते हुए भी मद्यप तृप्त नहीं होता । मद्य, सभी दोषों का और सभी प्रकार की आपत्तियों का कारण है । इसलिए मद्यपान का अवश्य ही त्याग कर देना चाहिए |
२ जो मनुष्य, प्राणियों के प्राणों का हरण कर के मांसभक्षण की इच्छा करता है, वह धर्मरूपी वृक्ष के दयारूपी मूल का उन्मूलन करता है । जो मनुष्य सदैव मांस का भक्षण करता हुआ भी दयावान् कहलाना चाहता है, वह प्रज्वलित आग में उत्तम बेली का आरोपण करना चाहता है । जो मनुष्य मांस-लोलुप है, उसकी बुद्धि, क्रूर डाकिनी के समान प्रत्येक प्राणी का वध करने में प्रवृत्त रहती है । जो मनुष्य उत्तम भोजन को छोड़ कर माँसभक्षण करता है, वह अमृत रस को छोड़ कर हलाहल विष पान करता है ।
जो मनुष्य, नरक रूपी अग्नि के लिए ईंधन समान अपने मांस का दूसरे प्राणी के मांस से पोषण करना चाहता है, उसके जैसा निर्दय और कौन होगा ?
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शुक्र और रक्त से उत्पन्न हुए और त्रिष्टा से वृद्धि पाये हुए तथा रक्त से जमे हुए और नरक के फलस्वरूप ऐसे मांस का कौन बुद्धिमान मनुष्य भक्षण करेगा ?
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३ जिसमें अन्तर्मुहूर्त के बाद ही + अनेक अतिसूक्ष्म जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसे मक्खन को खाने का त्याग करना ही विवेकवान् पुरुष का कर्तव्य है । एक जीव की हिंसा भी बहुत पाप रहा हुआ है, तब अनेक जन्तुओं की हिंसा वाले मक्खन का भक्षण तो कदापि नहीं करना चाहिए ।
४ मधु - शहद अनेक जन्तुओं के समूह की हिंसा से उत्पन्न होता है और जो मुंह की लार ( थूक) के समान घृणा करने योग्य है । ऐसे घृणित शहद को तो मुँह में रखा ही कैसे जा सकता है ? एक एक पुष्प से रस लेकर मक्खियों के द्वारा वमन किये हुए मधु को खाना धार्मिक पुरुष तो कभी पसन्द नहीं करते ।
५ बड़ ६ पीपल ७ गुलर ८ पिलखा ९ कटुंबर के फल में बहुत से त्रस जीव होते हैं, इसलिए इनके फलों को कभी नहीं खाना चाहिए। यदि भोजन के नहीं मिलने से दुर्बलता
+ छाछ में से बाहर निकालने के बाद अन्तर्मुहूर्त में ।
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