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________________ तीर्थकर चरित्र $$$$နနနနနနနနနန နနနနနနနနနနနနန်း आगई हो और क्षुधा से व्याकुलता हो रही हो, तो भी पुण्यात्मा प्राणी ऐसे फल नहीं खाते । १० अनन्तकाय -सभी जाति के कन्द, सभी प्रकार की कुंपलें = अकुरे (किशलय % वनस्पति की उत्सत्ति के बाद की वह अवस्था जिसमें वह कोमल रहे) सभी प्रकार के थोर(?) 'लवण' नामक वृक्ष की छाल, कुमारी ( ग्वारपाठा ? )गिरिकणिका, शतावरी, विरूढ़, गडुची, कोमल इमली, पल्यंक, अमृतवेल, सूकर जाति के वाल ( ? ) और आलु, रतालु, पिण्डालु आदि अनेक प्रकार की अनन्तकाय वाली वनस्पति (जिसमें सूई के अग्रभाग पर आवे, उतने अंश में भी अनन्त जाव होते हैं) जिसके ज्ञान से मिथ्यादष्टि वंचित रहते हैं इनका खाना त्याग देना चाहिए। ११ अज्ञात फल-शास्त्र में निषेध किये हुए फल अथवा विष फल का भक्षण नहीं हो जाय, इस हेतु से समझदार मनुष्यों और अन्य किन्हीं जानकारों के जानने में जो फल नहीं आये हों, उन अनजान फलों का खाना भी त्याग देना चाहिये। १२ रात्रि-भोजन--रात के समय भोजन कदापि नहीं करना चाहिये । क्योंकि रात को घोर अन्धकार होने के कारण भोजन में पड़ते हुए जीव दिखाई नहीं देते और खाने में आ जाते हैं तथा रात के समय प्रेत-पिशाच आदि क्षुद्र देव, यथेच्छ फिरते रहते हैं और उनके द्वारा भोजन उच्छिष्ट हो जाता है। यदि भोजन में कीड़ी खाने में आ जाय तो बुद्धि का नाश होता है, जूं (यूका) खाने में आ जाय तो जलोदर का रोग हो जाता है। मक्खी खा जाने से वमन होता है, मकड़ी खाने में आ जाय तो कोढ़ रोग हो जाता है । काँस या लकड़ी की फाँस आ जाय ता गले में छेद कर देती है। यदि भोजन में बिच्छु आ जाय तो तालु को विंध देता है और केश खाने में आ जाय तो गले में अटक कर स्वर-मंग कर देता है, इत्यादि अनेक दोष रात्रि-भोजन में हैं । रात के समय सूक्ष्म जीव दि वाई नहीं देते, इसलिए प्रासुक (निर्जीव) पदार्थ भी नहीं खाना चाहिए, क्योंकि उस समय अवश्य ही अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है। जिसमें जीवों का समूह उत्पन्न हो, उस भोजन को रात के समय खाने वाला मूढ़ मनुष्य, राक्षस से भी अधिक दुष्ट माना जाता है । जो मनुष्य दिन-रात खाता ही रहता है, वह बिना सोंग-पंछ का पश हैं। रात्रि-भोजन के दोषों को जानने वाले मनुष्य को चाहिए कि दिन के प्रारम्भ और अन्त की दो-दो घड़ी छोड़ कर मध्य में भोजन करे । रात्रि-भोजन का त्याग किये बिना यदि कोई मनुष्य केवल दिन को ही खाता हैं, तो भी उसे रात्रि-भोजन त्याग का वास्तविक फल नहीं मिलता। जिस प्रकार उधार दिये हुए रुपयों का ब्याज तभी मिलता है, जब कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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