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________________ ဘာာာာpage धर्म देशना ®®®ses Fs sepas ५६७ भगवान् तप-संयम से अपनी आत्मा को पवित्र करते हुए भूतल पर विचरने लगे । प्रव्रजित होने के ५४ दिन बाद उसी सहस्राम्र वन में तेले के तप सहित ध्यान करते हुए, आश्विन की अमावस्या के दिन प्रातःकाल चित्रा नक्षत्र में भगवान् के धातिकर्म नष्ट हो गए । वे केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त कर सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हुए । ककककर केवलज्ञान प्राप्त होते ही देवेन्द्रों के आसन चलायमान हुए । उन्होंने भगवान् का केवलज्ञानी-केवलदर्शनी होना जाना । वे हर्षोल्लासपूर्वक अपने-अपने परिवार और देव-देवियों के साथ सहस्राम्र वन में आये और अरिहंत भगवान् को वन्दन- नमस्कार कर के भव्य समवसरण की रचना की। उद्यान रक्षक अधिकारी ने श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित हो कर इस अलौकिक घटना का निवेदन किया। भगवान् को केवलज्ञान की प्राप्ति का शुभ संवाद सुन कर श्रीकृष्ण प्रसन्न हुए । उन्होंने उद्यान- रक्षक को साढ़े बारह करोड़ रुपये देकर पुरस्कृत किया और स्वयं बड़े समारोहपूर्वक अपने दशार्ह आदि परिजनों, माताओं, रानियों, बन्धुओं, कुमारों, राजाओं और अधिकारियों के साथ सहस्राम्र वन में प्रभु को वन्दन करने चले । जब समवसरण दिखाई दिया, तो वे अपने-अपने वाहनों से नीचे उतरे और राजचिन्हों को वहीं छोड़ कर, उत्तर की ओर के द्वार से समवसरण में प्रवेश किया । भगवान् अरिष्टनेमिजी महाराज एक स्फटिक रत्नमय सिंहासन पर बिराजमान Jain Education International । वे अतिशयों से सम्पन्न देदीप्यमान दिखाई दे रहे थे । भगवान् की वन्दना एवं प्रदक्षिणा कर के श्रीकृष्ण आदि यथास्थान बैठे । देवेन्द्र और नरेन्द्र की स्तुति के पश्चात् भगवान् ने अपनी अतिशय सम्पन्न गम्भीर वाणी में धर्मदेशना दी । धर्म देशना लक्ष्मी बिजली के चमत्कार के समान चंचल है । प्राप्त संयोगों का स्वप्न में प्राप्त द्रव्यवत् वियोग होना ही है । योवन भी मेघ घटा की छाया के समान नष्ट होने वाला है और शरीर जल के बुदबुदे जैसा है । इस प्रकार इस असार संसार में कुछ भी सार नहीं है । यदि सार है, तो मात्र ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पालन में ही है । तत्त्व पर श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है । तत्त्व का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है और सावद्य-योग की विरति रूप मुक्ति का कारण सम्यग् चारित्र कहलाता है । सम्पूर्ण चारित्र मुनियों को होता है और गृहस्थों को देश- चारित्र होता है । श्रावक, जीवन पर्यन्त देश- चारित्र पालने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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