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तीर्थङ्कर चरित्र
करते ? क्या में दया के योग्य नहीं हूँ ? पशुओं को तो मेरे पिताजी ने बन्दी बनाया था, मैंने नहीं | परन्तु मेरे हृदय को तो आप ही ने कुचला है ?"
" प्रियतम ! जब मैं आपकी भव्यता, दिव्य तेज और लोकोत्तम गुणों की तुला में अपने-आपको तोलती, तो निराश हो जाती और सोचती --' कहाँ वे चिंतामणि रत्न के समान नर-रत्न और कहाँ में कंकर के समान किंकरी ?' किन्तु जब आपके वचन पर विश्वास करती, तो मेरी निराशा दूर हो कर आशा दृढ़ीभूत हो जाती है । फिर उसी आशा पर मन में बड़े-बड़े मनोरथ बनने लगते। मुझे स्वप्न में भी आशंका नहीं थी कि आप मेरे साथ विश्वासघात करेंगे और मुझे परित्यक्ता बना देंगे । आपका यह व्यवहार कैसा है ? उत्तम पुरुष जो स्वीकार करते हैं, उसका जीवनपर्यन्त पालन करते हैं । फिर मैं क्यों ठुकराई गई ? मैंने आपका क्या अपराध किया था ?" " प्राणेश ! में आपको क्यों दोष दूं ? दोष तो मेरे कर्मों का ही है । मैंने पूर्वभव में ऐसे पाप किये होंगे । किन्हीं स्नेहियों—- प्रेमियों का प्रणय-बन्धन तोड़ा होगा, किसी आशाभरी प्रेमिका के प्रेमी को भ्रमित कर विमुख किया होगा और विरह की आग में जलाया होगा । बस, मेरा वही पाप उदय में आया है । में उसी पाप का फल भोग रही हूँ । इसमें आपका क्या दोष है ?"
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"नाथ ! आपने भले ही मुझे ठुकराया, परन्तु में तो उसी समय आपका वरण कर चुकी हूँ- --जब आपने वचन से मुझे स्वीकार किया था । मेरे मन-मन्दिर में आपका स्थान अमिट हो चूका है और मेरी माता तथा अन्य कुलांगनाओं ने भी विवाह के गीतों में आपका और मेरा सम्बन्ध गा कर स्वीकार कर लिया है । इसलिये आपके विमुख हो जाने पर भी मैं तो आपको नहीं छोड़ सकती । मेरे मन-मन्दिर से आप नहीं निकल सकते......... यह विवाह मण्डप, लग्न वेदिका और सभी प्रकार की साजसज्जा सब व्यर्थ हो गए । अब इनका काम ही क्या रहा ? हा, दुर्देव ! यह कैसा दुविपाक हैं "" -- कह कर वह दुःखावेग में छाती पाटने लगी ।
सभी सखियां दिग्मूढ़ हो कर स्तब्ध खड़ी थी। उन्होंने राजमती के हाथ पकड़े और समझाने लगी;
" सखी ! तुम विलाप मत करो । वः निर्दय, निर्मोही अरिष्टनेमि तुम जैसी देवीतुल्य स्त्री-रत्न की उपेक्षा कर के लौट गया, तो अब उससे तुम्हारा सम्बंध ही क्या रहा ? अच्छा हुआ, जो उसकी भीता, व्यवहार हूँ नता, राम-हीनता और वनवासी असभ्य जैसी उज्जड़ता का पता -- लग्न होने के पूर्व ही--चल गया और वह स्वयं लौट गया। यदि
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