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कुमार ने देवों की बात स्वीकार की और उन्हें बिदा किया। इसके बाद इन्द्र की आज्ञा से जृम्भक देवों ने प्रचुर द्रव्य ला कर भण्डार भरपूर भरे और भगवान् अरिष्टनेमि प्रतिदिन वर्षोदान देने लगे।
राजमती को शोक और विरक्ति "प्रियतम लौट गए"--यह जानते ही राजमती मर्माहत हो कर, कटी हुई पुष्पलता के समान भूमि पर गिर पड़ी। उसके हृदय-मन्दिर में जिन महत्वाकांक्षाओं के भव्यभवन बन गए थे, वे सब एक ही झपाटे में नष्ट हो गए । वह संज्ञा-शून्य हो अचेत पड़ी थी। उसके गिरते ही सखियाँ भयभीत हो गई । शीतल-सुगन्धित जल के सिंचन और वायुसंचार से राजमती सचेतन हुई और उठ कर बैठ गई । अश्रुधारा से उसकी कंचुकी भींग गई थी, मस्तक के केश बिखर कर उड़ रहे थे और कुछ अश्रु-जल से गालों पर चिपक गए थे। वह चित्कार कर उठा। अपने हार-कंगनादि आभूषण तोड़-मरोड़ कर फेंकती हुई और गम्भीर आह भरती हुई बोली; --
"हां, देव ! इस हतभागिनी के साथ ऐसा खिलवाड़ क्यों किया? क्यों मुझे शिखर पर चढ़ा कर पृथ्वी पर पछाड़ी ? मेरे मन में यह भय था ही कि कहीं मैं ठगी न जाऊँ । ऐसा त्रिभुवन-तिलक रूप और देवोपिदुर्लभ महापुरुष मेरे भाग्य में कहाँ है ? मैने कभी मनोरथ भी नहीं किया था कि नेमिकुमार मेरे प्रियतम बने । दरिद्र के हाथ में अचानक चिंतामणि-रत्न के समान आ कर हृदय में पैठे और खूब ललचाया । सोते-जागते मनोरथ के भव्य प्रासाद बनाये और जब मनोरथ पूर्ण होने की घड़ी आई, तो लूट-खसोट कर फिर कंगाल बना दी गई ।"
"हा, नाथ ! मेरे मन में आये ही क्यों ? मैने कब आपको पाने की इच्छा की थी ? विवाह करने की स्वीकृति दी, वचन दिया, विश्वास जमाया, बारात ले कर आये और मार्ग से ही लौट गए ? क्या यह वचन-भंग नहीं हुआ ? क्या यह विश्वासघात नहीं है ?"
" नहीं, नहीं, मैं स्वयं दुर्भागिनी हूँ। आप तो मुझ पर कृपा कर के आए, परन्तु मेरा दुर्भाग्य, प्राणी-दया का रूप धारण कर के आया और आपको लौटा गया। इसमें आपका क्या दोष है ?"
" नहीं, नहीं, आप दयालु नहीं, निर्दय हैं । यदि दयालु होते तो मेरी दया क्यों नहीं
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