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अरिष्टनेमि का लग्नोत्सव
श्रीकृष्ण, उग्रसेनजी के भवन में पहुँचे । उग्रसेनजी ने उनका यथायोग्य सत्कार किया । कुशल-क्षेम पृच्छा के बाद श्रीकृष्ण ने राजमती की माँग को । उग्रसेनजी ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हुए कहा ; -
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'यह तो मुझ पर बड़ा अनुग्रह हुआ । इससे बढ़ कर प्रसन्नता का कारण और क्या हो सकता है ? किन्तु मेरी एक इच्छा आप पूर्ण करें, तो मैं अपने को सफल - मनोरथ समझं ?"
'कहिये, क्या चाहते हैं आप ? "
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'आप बारात ले कर मेरे यहाँ पधारें। मैं आप सभी का स्वागत-सत्कार करूँ और कुमार अरिष्टनेमि के साथ राजमती के लग्न कर दूं । सत्यभामा का ब्याह भी मैं नहीं कर सका, तो इस बार तो मेरी साध पूरी करने दीजिए" - उग्रसेनजी ने नम्र हो कर कहा ।
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'ठीक है, ऐसा ही होगा" -- श्रीकृष्ण ने स्वीकृति दी ।
श्रीकृष्ण ने समुद्रविजयजी के समीप आ कर अरिष्टनेमि का राजमती के साथ सम्बन्ध होने की बात कही । समुद्रविजयजी बड़े प्रसन्न हुए और बोले ; -
'वत्स ! तेरे ही प्रयास से हमारी बहुत दिनों की साध पूरी होने जा रही है । अब मैं ज्योतिषी को बुलवा कर लग्न निकलवाता हूँ। यह कार्यं शीघ्र ही सम्पन्न होना चाहिए ।'
समुद्रविजयजी ने ज्योतिषी को बुला कर लग्न का मुहूर्त पूछा । ज्योतिषी ने कहा;
'स्वामिन् ! अभी मुहूर्त ठीक नहीं है और कुछ दिन बाद वर्षा काल प्रारम्भ हो रहा है, जो विवाह के लिये निषिद्ध-काल है । वर्षा काल में मुख्यतया धर्म- मँगल ही मनाया जाता है ।"
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" ज्योतिषीजी ! निषिद्ध-काल में भी आपवादिक-मार्ग तो निकलते ही हैं। बड़ी कठिनाई से कुमार को मनाया है । अब विलम्ब नहीं किया जा सकता। आप निकट के ही किसी दिन का मुहूर्त बता दीजिए" - समुद्रविजयजी इस प्रसंग को टालना नहीं चाहते थे ।
ज्योतिषी ने गणना कर के श्रावण शुक्ला षष्ठी का मुहूर्त दिया । विवाह की तैयारी होने लगी । राज भवन ही नहीं, सारी नगरी सजाई गई । प्रत्येक घर, मण्डप तोरण और ध्वजापताका से सुशोभित किया गया। राज भवन में माताओं रानियों और नगरी
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