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अरिष्टनेमि को महादेवियों ने मनाया
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कब तक नहीं मानेंगे " -- पद्मावती ने कहा और सब अरिष्टनेमि को अपने घेरे में ले कर बैठ गई ।
" देखो महात्माजी ! पहले भी अनेक महात्मा हुए। भ. ऋषभदेवजी इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थङ्कर थे, किंतु उन्होंने भी लग्न किया था, उनके भी दो पुत्रियाँ और सौ पुत्र थे । उनके बाद भी बहुत मे तीर्थङ्कर संसार के सुख भोग कर दीक्षित हुए । फिर आप ही सर्वथा निरस क्यों रहते हैं -- महादेवी जाम्बवती ने पूछा ।
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-" बहिन ! इसका रहस्य तुम नहीं जानती । जिस में पुरुषत्व हो, वही विवाह करता है और पत्नी के लिए आकाश-पाताल एक कर देता है, किंतु जो पुरुषत्व - हीन हो, वह तो स्त्री की छाया से भी डरता है । मुझे तो लगता है कि देवरजी पुंसत्व-हीन हैं, तभी विवाह का नाम लेते ही अधोमुखी हो जाते हैं " -- महादेवी रुक्मिणी बोली ।
देख कर महादेवी
रुक्मिणी की बात पर अरिष्टनेमि हँस दिये । उनकी हँसी लक्ष्मणा बोली;
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"देखों बहिन ! तुम्हारे मर्मभेदी वचनों ने इनके सुप्त रस को है । इनकी यह मुस्कान स्पष्ट ही स्वीकृति दे रही है । अब पूछने की रही " - - महादेवी लक्ष्मणा ने कहा ।
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श्रीकृष्ण एक ओर पास ही खड़े सुन रहे थे । उन्होंने आगे बढ़ कर कहा; ' "हां, ये विवाह करेंगे । परन्तु इनके अनुरूप कोई अनुपम सुन्दरी एवं सुलक्षणी युवती का चुनाव तो कर लो।"
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" सर्वोत्तम सुन्दरी है -- मेरी छोटी बहिन राजमती । उससे बढ़ कर खोज करने पर भी अन्य सुन्दरी आपको नहीं मिल सकेगी " -- सत्यभामा ने कहा ।
जाग्रत कर दिया आवश्यकता नहीं
" तुम्हारी बहिन ! हां, अवश्य सुन्दरी होगी। तुम भी क्या कम हो । परन्तु स्वभाव भी तुम्हारे जैसा है क्या " - - कृष्ण ने व्यंगपूर्नक महादेवी से पूछा ।
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'चलो हटो। यहाँ भी ग्वालिये जैसी बातें " -- स्मितपूर्वक घुरती हुई महारानी सत्यभामा बोली ।
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'अच्छा, अच्छा, उलझन मिटी । चलो, अब नगर में चलें । में कल ही इस सम्बन्ध को जोड़ने का प्रयत्न करूँगा " - श्रीकृष्ण बोले ।
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