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सागरचन्द-कमलामेला उपाख्यान
५७५ कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककर पुत्री कमलामेला जैसी अनुपम एवं अद्वितीय सुन्दरी युवती अब तक नहीं दिखाई दी। वह वास्तव में ससार का महान् कन्या-रत्न है । परन्तु नभःसेन भाग्यशाली है कि जिसके साथ उस भुवनसुन्दरी के लग्न होने वाले हैं।"
बस, नारदजी ने साग रचन्द के मन में एक आकांक्षा उत्पन्न कर दी। फिर कुछ व्यावहारिक बातें कर के चल दिये और कमलामेला के निकट पहुँचे । उसके पूछने पर नारदजी ने कहा-- संसार में अत्यन्त कुरूप है-नभःसेन और अत्यन्त सुन्दर एवं सुघड़ युवक है-सागरचन्द ।” यों दूसरी ओर भी नारदजी ने चिनगारी उत्पन्न कर दी और इसकी सूचना सागरचन्द को दे दी। सागरचन्द अन्य सभी बातें भूल गया और कमलामेला का ही स्मरण करने लगा। उसके हृदय में कमलामेला ऐसी बसी कि उसके सिवाय दूसरा कोई विचार ही उसके मन में नहीं आता था। शाम्ब कुमार आदि की साग विशेष प्रीति थी । सागरचन्द की खोये हुए के समान अन्यमनस्क एवं उदास और चिन्तित दशा देख कर उसकी माता और अन्य बन्धुवर्ग चिन्ता करने लगे । एकदिन शाम्बकुमार चुपके से आया और उसकी आंखें बन्द कर दी । सागरचन्द बोल उठा-"कमलामेला ! तुम आ गई।" यह सुन कर शाम्ब बोला--" मैं कमला-मेलापक" (कमला से मिलाने वाला) हूँ। और हाथ हटा लिये । सागरचन्द ने शाम्बकुमार से कहा--"अब आप ही मेरा कमलामेला से मिलाप करावेंगे । मेरी प्रसन्नता और स्वस्थता इसी पर आधारित है। जब आपने वचन दिया है, तो मेरी चिन्ता दूर हो गई। अब आप ही इसका उपाय करें।" उसने नारदजी के आने आदि की सारी घटना कह सुनाई, किन्तु शाम्बकुमार मौन रहे। एकदिन कुमारों की गोष्ठी जमी थी और मदिरापान हो रहा था। सागरचन्द ने मदिरा के नशे में शाम्ब से कमलामेला प्राप्त करवाने का वचन ले लिया । वचन दे चुकने के बाद जब शाम्ब स्वस्थ हुआ, तो उसने वचन का पालन करने का उपाय सोचा। उसने प्रज्ञप्तिविद्या का स्मरण किया। फिर वह अपने विश्वस्त साथियों और सागरचन्द के साथ. धनसेन के निवास के निकट के उद्यान में आया और एक सुरंग बना कर उसके घर में प्रवेश किया। कमलामेला भी सागरचन्द के विरह में विकल थी। ज्यों-ज्यों लग्न का दिन आता जाता था, त्यों-त्यों उसकी विकलता बढ़ रही थी। शाम्ब ने कमलामेला का हरण करवा कर सागरचन्द के साथ लग्न करवा दिये और सभी ने विद्याधर का रूप धारण कर के वर-वधू का रक्षण करने को शस्त्र बद्ध हो गए।
घर में कमलामेला दिखाई नहीं दी, तो उसकी खोज हुई। उद्यान में यादवों के बीच उसे देख कर धनसेन ने श्रीकृष्ण के सामने पुकार की। श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ पधारे
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