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तीर्थङ्कर चरित्र
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त्रिखण्ड के अधिपति बन कर श्रीकृष्ण ने द्वारिका में प्रवेश किया । वहाँ सोलह हजार राजाओं और देवों ने श्रीकृष्ण का त्रिखण्ड के अधिपति वासुदेव पद का अभिषेक कर के उत्सव मनाया । उत्सव पूर्ण होने पर श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को कुरुदेश का राज्य सम्भालने के लिए और अन्य राजाओं को अपने-अपने स्थान पर भेजा और देवों को भी विदा किया ।
समुद्रविजयजी आदि दस दशाई ( पूज्य एवं महाबलवान् पुरुष ) बलदेव आदि पाँच महावीर, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजा, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमार, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त - वीर योद्धा, महासेन आदि छप्पन हजार बलवगं - - सैनिक - समूह और वीरसेन आदि इक्कीस हजार योद्धा थे। इनके अतिरिक्त इभ्य, श्रेष्ठि, सार्थवाह आदि बहुत-से समृद्धजन से युक्त श्रीकृष्णवासुदेव राज करने लगे ।
अन्यदा सोलह हजार राजाओं ने आ कर अपनी दो-दो सुन्दर कुमारियाँ और उत्तम रत्नादि श्रीकृष्ण को भेंट की । उनमें से सोलह हजार का पाणिग्रहण श्रीकृष्ण ने किया, आठ हजार का बलदेवजी ने और आठ हजार का कुमारों ने ।
अनंगसेनादि हजारों गणिकाएँ संगीत, नाट्य-वादिन्त्रादि से द्वारिका नगरी को परम आकर्षक बना रही थी ।
सागरचन्द - कमलामेला उपाख्यान
राजा उग्रसेन के धारिणी रानी से नभःसेन पुत्र और राजमती पुत्री थी । नभः सेन की सगाई द्वारिका के धनसेन गृहस्थ की पुत्री ' कमलामेला' के साथ हुई थी । विवाहकार्य प्रारंभ हो गया । उसी अवसर पर घूमते हुए नारदजी नभःसेन के आवास में चले गए । नभःसेन उस समय अपने विवाह के कार्य में लग रहा था, इसलिये वह नारदजी का सत्कार नहीं कर सका । नारदजी ने इसमें आपनी अवज्ञा एवं अपमान माना और रुष्ट हो कर लौट गए। उनके मन में नभः सेन का विवाह बिगाड़ने की भावना उत्पन्न हुई । वे अपने क्रोध को सफल करने के लिए श्रीबल भद्रजी के पौत्र एवं निषध कुमार के पुत्र सागरचन्द के निकट आये । सागरचन्द ने नारदजी का अत्यन्त आदर-सत्कार किया और उच्चासन पर बिठा कर कुशल-क्षेमादि के बाद पूछा- 'महात्मन् ! यदि आपने अपने भ्रमण-काल में कोई आश्चर्यकारी वस्तु देखी हो, तो बताने की कृपा करें ।" नारदजी बोले- -- " वत्स ! मैने लाखों-करोड़ों स्त्रियाँ देखी, परन्तु धनसेन की
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