________________
५७२
तीर्थङ्कर चरित्र ၇၉၉၉၉၉၉၉၉၉၉၉၉နနနနနနနနန့်
जरासंध की बात सुनते ही कृष्ण ने चक्र को घुमा कर जरासंध पर फेंका । चक्र के अमोघ प्रहार से जरासंध का मस्तक कट कर भूमि पर गिर गया। जरासंध मर कर चौथे नरक में गया। देवों ने श्रीकृष्ण का जय-जयकार करते हुए पुष्प-वर्षा की। युद्ध समाप्त हो गया।
जरासंध की मृत्यु के बाद श्री अरिष्टनेमि के प्रभाव से स्तब्ध बन कर रुके हुएजरासंध के पक्ष के राजा, सामन्त और अधिकारी सम्भले । सभी ने श्री अरिष्टनेमि को प्रणाम किया और कहा,-"प्रभो ! हम तो आप से तभी से विजित हो चुके हैं, जब आप यादव-कुल में उत्पन्न हुए और अब विश्वविजेता परम-तारक जिनेश्वर भगवंत होने वाले हैं। हमारे ही क्या, आप सारे संसार के विजेता हैं। महात्मन् ! भवितव्यता ही ऐसी थी, अन्यथा हम और महाराज जरासंधजी भी पहले से जान गए थे कि अब हमारा भाग्य अनुकूल नहीं रहा । हमारी विजय असंभव है। आपके और यादवों के अभ्युदय से हमारा प्रभाव लुप्त होने लगा है । अब हम सब आपकी शरण में हैं।"
श्री अरिष्टनेमिजी उन सब को ले कर श्रीकृष्ण के निकट आए । कृष्ण ने अरिष्टनेमि को आलिंगन में बाँध लिया और श्री समुद्रविजयजी तथा अरिष्टनेमिजी के कथनानुसार श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव का सत्कार किया और उसके पिता के राज्य में से मगध का चौथा भाग दिया और हिरण्यनाभ के पुत्र रुक्मनाभ को कोशल में स्थापित किया। श्री समुद्र विजयजी के पुत्र महानेमि को शौर्यपुर और धर कुमार को मथुरा का राज्य प्रदान किया। इस प्रकार शेष राजाओं और मृत्यु प्राप्त अधिकारियों के पुत्रों को ययायोग्य सम्मानित कर के बिदा किया। श्रीनेमिनाथजी ने मातलि सारथि को भी बिदा कर दिया।
विजयोत्सव और त्रिखण्ड साधना
महायुद्ध की समाप्ति एवं अपनी विजय के दूसरे दिन यादवों ने युद्ध में मृत, जयसेन आदि की और सहदेव ने जरासंध आदि की उत्तर-क्रिया की। उधर जरासंध की पुत्री जीवयशा (जो कंस की रानी थी) अपने पिता और बन्धुओं का विनाश जान कर और श्रीकृष्ण की विजय सुन कर हताश हुई और चिता रचवा कर जीवित ही अग्नि में जल-मरी।
श्रीकृष्ण ने विजय का आनन्दोत्सव मनाया और उस स्थान पर 'आनन्दपुर' गाँव बसाने की आज्ञा प्रदान की।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org