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शिशुपाल सेनापति बना
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करने के लिए मानव और दिव्य अस्त्रों का प्रयोग कर रहे थे। इनका घात-प्रतिघात रूप युद्ध चलता ही रहा । वे शस्त्र छोड़ कर परस्पर मुष्टि-युद्ध भी करते, बाहुयुद्ध करते थे । इनके प्रहार और हुँकार से लोक कम्पायन न होने लगा । अन्त में सत्यकी ने भूरिश्रवा को पकड़ कर मार डाला ।
अनावृष्टि और हिरण्यनाभ का युद्ध उग्र रूप से चल रहा था । जब अनाधृष्टि ने हिरण्यनाभ का धनुष काट डाला, तो उसने एक थंभे जैसी दृढ़ और बड़ी लोह-अर्गला उठा कर अनाधृष्टि पर इतने बल से फेंकी कि उसमें से चिनगारियाँ निकलने लगी । अनाधृष्टि ने बाण मार कर उसे बीच में ही काट दी। अपना प्रहार व्यर्थ जाता देख कर हिरण्यनाभ रथ में से उतरा और खङ्ग ले कर अनाधृष्टि पर दौड़ा। यह देख कर श्री बलदेवजी रथ से उतरे और स्वयं खड्ग ले कर हिरण्यनाभ से जूझने लगे । विविध प्रकार के दाव पेंच से बहुत काल तक दोनों का खड्ग द्वंद्व चलता रहा । इस दीर्घकाल के द्वंद्व से हिरण्यनाभ थक गया । इसके बाद अनाधृष्टि ने ब्रह्मास्त्र से प्रहार कर उसे समाप्त कर दिया ।
शिशुपाल सेनापति बना
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हिरण्यनाभ के गिरते ही सेना के अन्य अधिकारी महाराजा जरासंध के पास आये । जरासंध ने रिक्त हुए सेनापति पद पर शिशुपाल का अभिषेक किया। उधर यादवों और पाण्डवों से सम्मानित एवं हर्ष-विभोर अनाधृष्टि कुमार, श्रीकृष्ण के निकट आये । सूर्य अस्त हो कर संध्या हो गई थी। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युद्ध स्थगित कर के सभी अपनेअपने शिविर में चले गये ।
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प्रातःकाल होने पर यादवी-सेना ने पुनः गरुड़-व्यूह की रचना की और शिशुपाल ने चक्रव्यूह की रचना की । इस समय महाराजा जरासंध स्वयं निरीक्षण करने, अपनी सेना के अग्रभाग पर आया । उसका हंसक मन्त्रो साथ था । मंत्री, यादवी-सेना के सेनापति और प्रमुख योद्धाओं की ओर अंगुली निर्देश करता हुआ इस प्रकार परिचय देने लगा; - 'महाराज ! वह काले अश्व युक्त रथ और गजेन्द्र चिन्हांकित ध्वजा वाला शत्रु-पक्ष का सेनापति अनाधृष्टि है । वह नीलवर्णी रथ वाला युधिष्ठिर है, वह श्वेत अश्व के रथ अर्जुन बैठा है, नील अश्व के रथ वाला है -- भीमसेन, स्वर्ण समान वर्ण वाले अश्व के रथ और सिंहांकित ध्वजा वाले समुद्रविजय, शुक्लवर्णी अश्व युक्त रथ और वृषभांकित
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