________________
तीर्थंकर चरित्र
= = ၁ ၁ ၁ ၁ PPIFF 1 ®* FF FF F®1ssss उपद्रवित एवं पीड़ित करता हुआ सेना के अग्रभाग पर आ कर अंटसंट बकने लगा । उसकी वाचालता देख कर अभिचन्द्र ने कहा--"अरे, ओ क्षुद्र ! बकता क्यों हैं ? लड़ना हो, तो तू भी आ सामने और कर्ण तथा दुर्योधन का साथी बन जा ।" अभिचन्द्र के वचन से हिरण्यनाभ विशेष उत्तेजित हुआ और तीक्ष्ण बाण-वर्षा से उसे पीड़ित करने लगा । हिरण्यनाभ के प्रहारों की भीषणता जान कर अर्जुन ने उसके बाणों को मध्य में ही काट- फेंकना प्रारंभ किया । हिरण्यनाभ अभिचन्द्र को छोड़ कर अर्जुन की ओर मुड़ा और अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अर्जुन पर प्रहार करने लगा । दोनों का युद्ध चल ही रहा था कि भीमसेन आ पहुँचा और अपने भारी गदा प्रहार से उसे रथ से नीचे गिरा दिया । हिरण्यनाभ उठा और लज्जा- मिश्रित क्रोध से अपने होंठ काटता हुआ पुनः रथारूढ़ हुआ और तीक्ष्ण प्रहार करने लगा । इसबार उसका सामना करने के लिए उसका भानेज जयसेन आया, जो समुद्रविजयजी का पुत्र था । हिरण्यनाभ ने जयसेन के सारथि को मार डाला । इससे विशेष कुपित हो कर जयसेन ने अपने भीषणतम प्रहार से हिरण्यनाभ के रथी को मारने के साथ उसका धनुष भी काट दिया और रथ की ध्वजा काट कर गिरा दी । हिरण्यनाभ ने लगातार ऐमे मर्मवेधी दस बाण मारे, जिससे जयसेन मारा गया । जयसेन की मृत्यु से उसका भाई महीय क्रोधातुर हो कर रथ से नीचे उतरा और ढाल-तलवार ले कर हिरण्यनाभ पर झपटा। महीजय को अपनी ओर आता देख कर हिरण्यनाभ ने क्षुरप्र बाण मार कर उसका मस्तक छेद डाला | अपने दो बन्धुओं का वध देख कर अनाधृष्टि, हिरण्यनाभ से युद्ध करने आया और दोनों योद्धा लड़ने लगे ।
५६६
င်းများ၊
जरासंध पक्ष के योद्धागण यादवों और पाण्डवों के साथ पृथक्-पृथक् द्वंद्व युद्ध करने लगे । प्राग् ज्योतिषपुर का राजा भगदत्त, हाथी पर चढ़ कर महानेमि के साथ युद्ध करने आया और गर्वोक्ति में बोला--" महानेमि ! मैं तेरे भाई का साला रुक्मि या अश्मक नहीं हूँ जिसे तू मार सकेग़ा। मैं नारक जीवों के शत्रु कृत्तांत - यमराज जैसा हूँ । इसलिए तू मेरे सामने से हट जा ।" इतना कहने के बाद वह अपना हाथी महानेमि के रथ के निकट लाया और रथ को हाथी से पकड़वा कर घुमाया। किन्तु महानेमि ने हाथी के उठाये हुए पाँव में बाण मारे, जिससे हाथी भगदत्त सहित पृथ्वी पर गिर पड़ा । उम समय महानेमि ने हँसते हुए और व्यंग-बाण मारते हुए कहा- 'हां, वास्तव में तू रुक्मि नहीं है और मैं तुझे रुक्ति के रास्ते भेज कर हत्या का पाप लेना भी नहीं चाहता' इतना कह कर उसे अपने धनुष का स्पर्श करा कर छोड़ दिया ।
"
उधर भूरिश्रवा और सत्य की, जरासंध और श्रीकृष्ण युद्ध-रत थे और विजय प्राप्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org