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तीर्थङ्कर चरित्र
पाण्डवों के सहायक बनेंगे, ऐसी दशा में जरासंध जैसे महाप्रतापी और अत्यन्त शक्तिशाली का आश्रय लेने से ही मैं पाण्डवों को मिटा कर, निष्कंटक राज कर सकूंगा । उसने जरासंघ द्वारा श्रीकृष्ण पर की गई चढ़ाई में जरासंध का साथ दिया और पाण्डव, द्वारिका की सेना के साथी हो गए ।
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शुभ मुहूर्त में सेना का प्रयाण हुआ । श्रीकृष्ण गरुड़ध्वज युक्त रथ पर आरूढ़ हुए । दारुक उनका रथ चालक था । अनेक राजाओं, सामन्तों और योद्धाओं से युक्त श्रीकृष्णबलदेव रणभूमि की ओर बढ़ने लगे । प्रयाण के समय उन्हें शुभ एवं विजय-सूचक शकुन हुए । द्वारिका से पैंतालीस योजन दूर सेनपल्ली गाँव के निकट यादवी सेना का पड़ाव हुआ ।
कुछ विद्याधर राजा समुद्रविजयजी के निकट आये और नम्रतापूर्वक निवेदन किया; ―" राजन् ! हम आपके बन्धु श्रीवसुदेवजी के गुणों पर मुग्ध हो कर वशीभूत बने हुए हैं, फिर आपके घर, धर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर भगवान् और वासुदेव- बलदेव जैसी महान् आत्माएँ अवतीर्ण हुई है । उनके प्रभाव के आगे किसी का बल काम नहीं देता । अतएव आपको किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है, किंतु उपयुक्त समय होने से हम भी अपनी भक्ति समर्पित करने आये हैं । कृपया हमें भी अपने सामंतों के साथ युद्ध के साथी बना लीजिये ।" समृद्रविजयजी ने विद्याधरों का आग्रह स्वीकार किया, तब विद्याधर राजा बोले;
" वैताढ्य पर्वत पर के कुछ विद्याधर राजा, जरासंघ के पक्ष के हैं । वे सेना ले कर आने वाले है । हमारा विचार है कि उनको वहीं रोक दें। इसलिए हमारी सेना के सेनापति श्री वसुदेवजी को बनावें । आप उन्हें तथा शाम्ब और प्रद्युम्न को हमारे साथ भेज दें। इससे सभी विद्याधरों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और सरलता से विजय हो जायगी ।"
समुद्रविजयजी ने विद्याधरों की बात स्वीकार की और वसुदेवजी तथा शाम्ब एवं प्रद्युम्न कुमार को जाने की आज्ञा दे दी । अरिष्टनेमि कुमार ने अपने जन्मोत्सव के प्रसंग पर, देव द्वारा अर्पित की गई अस्त्रवारिणी ओषधी वसुदेवजी को दे दी ।
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श्रीकृष्ण और जरासंध की सेना के पड़ाव में चार योजन की दूरी रही और दोनों सेनाएँ अपनी-अपनी व्यवस्था में संलग्न हो गई ।
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