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तीर्थङ्कर चरित्र
सुनी । लोग तो कहते हैं कि यादवों की नगरी और कृष्ण की द्वारिका का निर्माण देवों ने किया है और वह देवपुरी के समान है । कृष्ण का प्रताप बहुत बड़ा चढ़ा है । आपही सोचिये कि कालकुमार की कठोर पकड़ से अक्षुण्ण बच निकलने और उन्हीं को काल के गाल में धकेलने का कोशल रचने का साहस कोई साधारण मनुष्य कैसे कर सकता है ? बच्चे भूल कर जायें, वे आगे-पीछे नहीं देखे और हठ पकड़ लें, तो बड़ों को उस पर ध्यान नहीं देना चाहिए । कृष्ण अपने से दूर बहुत दूर है । हम पूर्व में और वह पश्चिम में है । हमें अब उस ओर नहीं देख कर शांति से रहना चाहिए। यह मेरी हाथ जोड़ कर प्रार्थना है ।"
दूसरे मन्त्रियों ने भी प्रधान मन्त्री का समर्थन किया, किन्तु जरासंध नहीं माना । पुत्री का दुःख उससे सहन नहीं हो रहा था और सुपुत्र कालकुमार की अकालमृत्यु भी उसके हृदय में खटक ही रही थी। वह मन्त्रियों की निराशापूर्ण बात सुन कर उत्तेजित हुआ । उसने मन्त्रियों को निर्देश दिया--" सोच-विचार की आवश्यकता नहीं । सेना को शीघ्र ही प्रयाण करना है । मैं स्वयं भी सेना के साथ युद्ध-स्थल में पहुँच कर युद्ध करूंगा ।"
* पृ. ३८४ ।
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सेना सज्ज हो कर चली । सेना में जरासंध के सहदेव आदि वीर पुत्र और चेदीनरेश शिशुपाल भी अपनी सेना सहित सम्मिलित हुए । महापराक्रमी राजा हिरण्यनाभ, दुर्योधन आदि अनेक राजा और हजारों सामंत सम्मिलित हुए। जब महाराजाधिराज जरासंध वाहनारूढ़ होने लगा, तो मस्तक से उसका मुकुट गिर पड़ा और किसी वस्तु में उलझ कर गले का हार टूट गया, मोती बिखर गये, उत्तरीय वस्त्र में पाँव फँस गया और सम्मुख ही छींक हुई। इसके सिवाय बायाँ नेत्र फड़का, हाथियों ने एक साथ विष्ठा - मूत्र किया, पवन प्रतिकूल चलने लगा और आकाश में सेना के ऊपर ही गिद्ध पक्षी मँडराने लगे । इस प्रकार अनायास ही अपशकुन हुए, जो इस प्रयाण को अनिष्टकारी और दुःखांत परिणाम की सूचना दे रहे थे । किन्तु उसका पतनकाल निकट आ रहा था और अधोगति में ले जाने वाली कषायें तीव्र हो रही थी । इसलिए वह सब की अवज्ञा करता हुआ, वाहनारूढ़ हो कर चला । सेना के प्रयाण से उड़ी हुई धूल ने आकाश को बादल के समान छा दिया और भूमि कम्पायमान होने लगी । सेना क्रमशः आगे बढ़ने लगी ।
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