________________
कककककक
जरासंघ का युद्ध के लिए प्रयाण और अपशकुन
အရာရာစားသောာာာာာာe
" द्वारिका के स्वामी महाराजा कृष्ण हैं, जो वसुदेवजी के पुत्र और देवकी के आत्मज हैं । वे महाप्रतापी हैं। उनकी चहुँमुखी प्रतिभा सर्वविदित है " -- व्यापारियों के प्रमुख ने कहा ।
५५५
कृष्ण का नाम सुनते ही जीवयशा के हृदय में शोक के साथ क्रोध की ज्वाला उठी । व्यापारियों को बिदा कर के वह शोक मग्न हो गई । पुत्री के शोकाकुल होने की बात दासियों से सुन कर जरासंध अन्तःपुर में आया और पुत्री से रुदन का कारण पूछा । वह रोती हुई बोली ; --
"पिताजी ! अब मुझे मरना ही होगा । अग्नि प्रवेश के सिवाय अब मेरे जीवन का कोई मांग नहीं रहा । मुझे विधवा बनाने वाला दुष्ट कृष्ण तो द्वारिका में राज्याधिपति बना बैठा है । उसके जल मरने की बात केवल मुझे भ्रमित करने के लिए ही कही गई थी।"
“ हैं, क्या कृष्ण जीवित है ? अच्छा । वह मायावी छल से बच गया, परंतु अब वह नहीं बच सकेगा । पुत्री ! तू चिन्ता मत कर। मैं उसका और यादव-कुल का समूल नाश कर के उसको माता और पलियों को रुलाऊँगा । तू निश्चित रह। एकबार उसकी मायाचारिता चल गई । अब उसका बदला ब्याज सहित लिया जायगा ।"
जरासंध का युद्ध के लिए प्रयाण और अपशकुन
Jain Education International
जरासंध ने राजसभा में आ कर मन्त्री को सेना सज्ज कर सौराष्ट्र पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी । जरासंध के शब्द मुंह से निकलते ही अपशकुन हुए । मन्त्रियों ने विचार करने के बाद जरासंध से कहा; -
" स्वामी ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। किंतु इस आयोजन को बहुत सोच-समझने के बाद करना है । आपकी आज्ञा होते ही अपनायास अशकुन हुआ और मेरा मन भी कुछ हतोत्साही हो रहा है। इससे पूर्व स्वामी ने कई बार विजय यात्रा की और युद्ध के आयोजन हुए, तब में सदैव उत्साहित रहा और प्रसन्नता पूर्वक सभी आज्ञाएँ शिरोधार्य की। किंतु आज प्रथमवार मेरी आत्मा अनुत्साहित हो रही है । इतना ही नहीं, आपश्री की आज्ञा ने हृदय में आघात किया है । सर्व प्रथम हमें विपक्ष की शक्ति एवं प्रभाव को देखना है | मैंने कुछ प्रवासियों एवं यात्रियों से द्वारिका की शासन व्यवस्था और समृद्धि की प्रशंसा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org