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तीर्थङ्कर चरित्र
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लाई हैं । यदि राज-द्रोह किया है, तो आपने । आप ही मुझे लाई और अब आप ही मुकर
"क्या बकता है ? मैं लाई, और तुझे"--आश्चर्यपूर्वक सत्यभामा चीखी ।
"हाँ, हां, आप लाई । सारा नगर साक्षी है, सभी ने देखा है । अब आप पलट रही हैं।"
सत्यभामा ने नगर में पूछवाया, तो शाम्ब का कथन सत्य निकला। सभी ने कहा--"हाँ, महारानीजी खुद शाम्बकुमार को हाथी पर, अपने पास बिठा कर और अपने हाथ में कुमार का हाथ लिये हुए चंवर डुलाती हुई लाई।"
"ओह, इन कपटियों ने मेरे साथ छल किया । राजकुमारी बन कर मुझे ठगी। मैं सीधीसादी भोली-भामा और यह कपटी संसार ।"
"तू कपटी, तेरा बाप कपटी, तेरी माँ कपटी, तेरे भाई कपटी, सब कपटी ही कपटी । मैं अभी जा कर तेरे कपटी बाप की खबर लेती हूँ"--कहती हुई क्रुद्ध सत्यभामा चली गई।
शाम्ब भी अपने पिता, पितामह आदि को प्रणाम करने चला गया।
महाभारत युद्ध का निमित्त
अन्यदा कुछ व्यापारी यवन-द्वीप से विविध प्रकार की वस्तुएँ ले कर भारत आये। उनकी अन्य वस्तुएँ तो द्वारिका में बिक गई, परंतु रत्नकंबल नहीं बिके । व्यापारी भारत की बड़ी राजधानियों में घूमते हुए राजगृही आये और मगधेश्वर की पुत्री जीवयशा (कंस की विधवा) के पास पहुँचे । वे कम्बल बहुत ही कोमल और सूक्ष्म रोम से निर्मित एवं स्वर्ण-मुक्तादि जड़ित थे। वे ऋतु के अनुकूल प्रीष्म में शीतल और शीत में उष्णस्पर्श दे कर सुख पहुँचाने वाले थे। जीवयशा को रत्नकम्बल भा गये, किंतु उनका मूल्य उसे बहुत लगा। उसने व्यापारियों के बताये हुए मूल्य से आधा मूल्य ही बताया, तब निराश हो कर व्यापारी बोले;
__ "यदि इतने मूल्य में देना होता, तो द्वारिका में ही दे-देते । यहां तक लाने और चोर-उचक्कों से रक्षा करने का कष्ट ही क्यों उठाते ?"
"द्वारिका कहाँ है और उसका राजा कौन है"--जीवयशा ने पूछा ।
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