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तीर्थङ्कर चरित्र
मेरे वशीभूत हो जाय और सौत को सर्वथा भूल जाय । में आपका उपकार जन्मभर नहीं भूलूंगी". - सत्यभामा ने ढोंगी महात्मा प्रद्युम्न से कहा ।
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“ महारानी ! तुम बड़ी भाग्यशाली हो । तुम्हारा रूप अब भी बहुत सुन्दर है । तुम्हें विशेष रूप का लोभ करने की आवश्यकता ही क्या है ? इतने में ही सन्तोष करना चाहिए " --- प्रद्युम्न ने कहा ।
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'नहीं महात्मन् ! आपने दासी पर इतनी कृपा की और उसकी कूबड़ और कुरूपता मिटा कर सीधी और सुन्दर बना दी, तब मुझ पर भी इतनी कृपा कर दीजिये"दीनताभरे शब्दों में महारानी सत्यभामा ने याचना की ।
" परन्तु इसके लिए पहले तुम्हें विद्रूप बनना पड़ेगा, उसके बाद सुन्दरता आ सकेगी। साधना कष्टप्रद है । तुम स्वयं सोच लो " -- प्रद्युम्न ने विमाता को शब्दजाल में बाँधते हुए कहा ।
" आप कहें, मुझे क्या करना चाहिए " - रानी ने पूछा ।
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'पहले आपको अपने मस्तक के केश बटवाना पड़ेगा। फिर सारे शरीर पर मसि लगा कर काला करना होगा और फटे हुए वस्त्र पहन कर मेरे सामने आना होगा । मैं उसके बाद साधना बतलाऊँगा । परन्तु पहले अपने मन में निश्चय कर लो । साधना कठोर है ।"
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'मैं अभी सब करती हूँ । आप यहीं बैठें " कहती हुई सत्यभामा उठी। उसे अत्यन्त सुन्दर बनने की उत्कट इच्छा थी । उसे इतनी भी धीरज नहीं थी कि पहले पुत्र का विवाह तो कर ले, बाद में सुन्दर बनने की साधना करे । उसने अपने सुन्दर और लम्बे बाल कटवा लिये । सारे शरीर पर स्याही पुतवाली और जीर्ण-वस्त्र धारण कर के भूतनी जैसी बन गई । विमाता का भूतनी जैसा रूप देख कर प्रद्युम्न मन में हर्षित हुआ और अपनी माता का वैर लेने का सन्तोष अनुभव करता हुआ बोला --
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'मुझे भूख लगी है। भूखे पेट साधना नहीं हो सकती । तुम्हारी दासी मुझे भोजन कराने का आश्वासन दे कर लाई और नया झंझट खड़ा कर के जाने कहां खिसक गई । पहले मेरे लिए भोजन की व्यवस्था करो, फिर दूसरी बात होगी ।"
भोली सत्यभामा ने रसोइये को बुला कर महात्मा को भोजन कराने की आज्ञा दी | महात्मा भोजन करने के लिए उठे और बोले -- " में लौटू, तब तक तुम अपनी कुलदेवी के समक्ष ध्यान लगा कर बैठो और " सुरूपा विद्रूपा भवंति स्वाहा” मन्त्र का जाप करो ।”
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