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________________ प्रद्युम्न अब सगी माता को ठगता है सत्यभामा को उलटी पट्टी पढ़ा कर मन में हर्षित होता हुआ ठग-महात्मा भोजन करने गया। भोजन करते हुए विद्या के बल से वह सर्वभक्षी बन गया और सारा भोजन समाप्त करने के बाद फिर माँगने लगा। रसोइये ने कहा-"महात्मन् ! आप किस जन्म के भूखे हैं ? इतना खा कर भी तृप्त नहीं हुए ? अब तो हम विवश हैं । नया भोजन बने, तब आपको मिल सकता है।" "मेरी भूख मिटी नहीं। मैं जाता हूँ । जहाँ भरपेट भोजन मिलेगा, वहाँ जाउँगा तुम अपनी स्वामिनी से कह देना"--कह कर चल दिया। वहां से चल कर बालक विप्र का रूप बना कर अपनी सगी-माता महारानी रुक्मिणी के भवन में पहुँचा । रुक्मिणी खिन्न, उदास और हतारा वैठी थी । बालक को देख कर उपके हृदय में स्नेह जाग्रत हुआ। उसने उसे अपने पास बुलाया। वह आते ही महाराजा कृष्ण के सिंहासन पर बैठ गया । रुक्मिणी चकित रह गई । क्योंकि उस सिंहासन पर श्रीकृष्ण और उनके पुत्र के सिवाय दूसरा कोई नहीं बैठ सकता था । वह देव-रक्षित सिंहासन था । माता का आश्चर्य जान कर प्रद्युम्न ने कहा-- मेरे तप के प्रभाव से देव भी मेरा अहित नहीं कर सकते । मैं स्वय रक्षित एवं निर्भय हूँ।" ___"आपके आने का प्रयोजन क्या है"--महारानी ने पूछा। "मैने निराहार तप करते हुए सोलह बर्ष व्यतीत कर दिये । अब मैं पारणे के लिए तुम्हारे यहाँ आया हूँ। मुझे भोजन दो"--पाता को भी ठगता हुआ प्रद्युम्न बोला । __ " सोलह वर्ष का तप ! मैने तो सुना कि एक वर्ष से अधिक किसी का तप नहीं चलता । फिर क्या आप जन्म से ही तप करने लगे और अब तक तपस्वी बने रहे"-- आश्चर्य व्यक्त करती हुई महारानी बोली। "यदि तुम्हें भोजन नहीं कराना है, तो रहने दो। मैं महारानी सत्यभामा के यहाँ जाता हूँ । वहाँ मुझे इच्छित भोजन मिलेगा।" "ठहरिये, मैं भोजन बनवाती हूँ। आत्मा में अशांति होने के कारण आज मैने भोजन नहीं बनवाया था"--रुक्मिणी बोली " क्यों, तुम्हें उद्वेग किस बात का है ?" "मेरे भी एक पुत्र था। किंतु बाल्यावस्था में ही कोई वैरी देव उसका अपहरण कर गया । उसके वियोग से मैं दुःखी हूँ। उसके समागमन की आशा से मैं कुलदेवी की आराधना करती हुई जीवन व्यतीत कर रही हूँ। बहुत प्रतीक्षा करने पर भी पुत्र का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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