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प्रद्युम्न का विमाता को ठगना
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कर कुब्जा दासी अत्यन्त प्रसन्न हुई । दासी ने प्रणाम किया और चरण-रज मस्तक पर लगाते हुए पूछा--" महात्माजी ! आपका स्थान कहाँ है ?"
-" भद्रे ! हम तो रमते-राम हैं । जहाँ भरपेट अच्छा भोजन मिले, वहीं रह जाते हैं ।"
दासी ने सोचा- महात्मा पहुँचे हुए महापुरुष हैं। इन्हें महारानी के पास ले जा कर मोदक आदि उत्तम भोजन कराना चाहिए।" वह उसे ले कर महारानी सत्यभामा के पास गई । कुब्जा दासी को सीधी खड़ी देख कर सत्यभामा ने आश्चर्यपूर्वक पूछा
"अरी कुब्जा ! तेरी कूबड़ कहाँ गई ? तू सीधी कैसे हो गई ? यह चमत्कार किसने किया?"
"स्वामिनी ! एक पहुँचा हुआ महात्मा आया है। उसने मुझ पर मन्त्र पढ़ कर हाथ फिराया और मेरी कूबड़ ठीक हो गई । मेरा रूप निखर आया और मुझ में स्फूति भी आ गई । बड़ा चमत्कारी महात्मा है वह ।"
“कहाँ है वह"--महारानी भी महात्मा की ओर आकर्षित हुई। उसके मन में भी एक आकांक्षा उत्पन्न हो गई।
" वह नीचे द्वार पर खड़ा है"--दासी ने कहा । "उसे आदर सहित यहाँ ले आ"--महारानी सत्यभामा ने कहा।
ब्राह्मण आया। उसने सत्यभामा को आशीर्वाद दिया। रानी ने उसे आदरपूर्वक उच्चासन पर बिठाया और कुशल-क्षेम पूछने के बाद कहा--
" महात्माजी ! आपने इस दासी पर बड़ी कृपा की। आप तो देव-पूज्य हैं। आपकी कृपा जिस पर हो जाय, उसके सारे मनोरथ सफल हो जाते हैं । धन्य है आपको।"
“यह सब भगवत्-कृपा है । साधना में अपूर्व शक्ति होती है । जो साधना करता है. उसे अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है और उससे दुःखी लोगों का बड़ा उपकार किया जा सकता है "--महात्मा बने हुए प्रद्युम्न ने कहा
प्रद्यम्न का विमाता को ठगना
'महात्मन् ! मुझे अपनी सौत का बड़ा दुःख है । सौत ने पति को अपने रूप-जाल में फंसा लिया है । आप अपनी कृपा से मुझे विशेष रूप-सुन्दरी बना दें, जिससे मेरे पति
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