SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुर्योधन को धृतराष्ट्र और विदुर को हित- शिक्षा ***ာ • FPPF Pe app app repre त्याग कर दो, तो भविष्य में होने वाले महान् दुष्परिणाम से बचा जा सकता है। आपने पुत्र मोह से वह बात नहीं मानी। अब वह भविष्य, वर्तमान बन कर सारे वंश और अन्य लाखों मनुष्यों के संहार का दृश्य प्रत्यक्ष होने जा रहा है । अब भी यदि दुर्योधन समझ कर सत्य मार्ग पर आ जाय, तो विनाश की जड़ ही नष्ट हो सकती है ।" ५३.३ विदुर की वाणी धृतराष्ट्र को सत्य लगी । उसने विदुर से कहा- "भाई हम दोनों एकबार दुर्योधन की समझावें । कदाचित् तुम्हारे प्रभावशाली वचनों से उसकी मति सुधर जाय । हम एक प्रयत्न और कर लें, फिर तो जैसी भवितव्यता होगा, वैसा होगा ।" धृतराष्ट्र और विदुर, दुर्योधन के पास आये और शान्तिपूर्वक बोले ; - " वत्स ! तू हमारा प्रिय है । हम तुम्हारा हित चाहते है । तुम्हारे भले के लिए हम कहते हैं कि तुम अपने मन से पूर्वबद्ध विचारों को छोड़ कर शान्त हृदय से उत्पन्न परिस्थिति पर विचार करो ।" " पाण्डव तुम्हारे भाई हैं। राज्य उन्हीं का है और तू प्रतिज्ञाबद्ध है । प्रतिज्ञा-काल पूर्ण हो चुका हैं । अब उनका राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए । पाण्डव बलवान् एवं अजेय हैं । न्याय उनके पक्ष में है । कई राजा उनके उपकार से दबे हुए हैं । पाण्डवों को तू शत्रु समझता है, परन्तु उन्होंने तुझे चित्रांगद के बन्धन से छुड़ा कर तुझ पर महान् उपकार किया है । दूसरा उपकार उन्होंने गोकुल-हरण के समय भी किया है। तुझे उनकी महानता का विचार कर के बिगड़ी बाजी सुधार लेनी चाहिए। जिस प्रकार खेल ही खेल में वे अपना सारा राज्य तुझे दे कर चल दिये और वनवास के दुःख सहे, उस प्रकार तो तुम नहीं कर रहे हो। तुम्हें तो अपना वचन निभाने के लिए, उन्ही का राज्य उन्हें सौंपना है फिर भी तुम्हारा पूर्व का राज्य तुम्हारे पास रहेगा ही । ऐसा करने से परस्पर प्रेम और सौहार्द जगेगा, वैर मिटेगा और भावी अनिष्ट से हम सब और राज्य बचे रहेंगे । इससे तुम्हारी प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी । जरा शान्ति से सोचो और सन्मार्ग अपनाओ । हम तुम्हारे हितैषी है और तुम्हें हितकारी सलाह देते हैं ।" दुर्योधन को उपरोक्त हित- शिक्षा भी बुरी एवं शत्रुतापूर्ण लगी । उसने क्रुद्ध हो कर कहा- "तात ! आप मुझे खोटा उपदेश क्यों देते हैं ? वह क्षत्रिय ही कैसा -जो बिना युद्ध के राज्य की एक अंगुल भूमि भी शत्रु के अर्पण कर दे ? मैं कायर नहीं हूँ । मैं उनसे युद्ध करूँगा और उनके दुःसाहस का उन्हें दंड दूंगा। आप मुझे हतोत्साह नहीं कर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy