SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 542
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ fafa fadada da दुर्योधन को सन्देश thaaraarthana उनमें ही समाविष्ट कर उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती हूँ । उनके सुख में अपना सुख और उनके दुःख में स्वयं दुख का वेदन करती हूँ । उन्हें भोजन कराने के बाद खाती हूँ । उन्हें शयन कराने के बाद सोती हूँ और उनके जागने के पहले ही शय्या छोड़ देती हूँ | मैं उन्हें असंतोष का कोई कारण नहीं देती । संक्षेप में यही कि मेरी ओर से ऐसा कोई व्यवहार नहीं होने देती, जिससे उनमें से किसी एक के भी मन में भेदभाव का सन्देह उत्पन्न हो । इस प्रकार के आचरण से सभी संतुष्ट और मुझ में अनुरक्त रहते हैं । पति के सर्वथा अनुकूल बन जाना ही वशीकरण का अमोघ उपाय है" - द्रौपदी ने कहा । --" तुम्हारी साधना सचमुच कठोर है । अपने-आपको सर्वथा गौण कर लेना अति कठिन है " -- सत्यभामा ने कहा । 14 aadhaa दशाई ज्येष्ठ श्री समुद्रविजयजी ने अपनी बहिन कुन्ती से कहा -- "अर्जुन को तो हमने सुभद्रा पहले ही दे दी थी, परन्तु अब शेष चारों बन्धुओं को -- लक्ष्मीवती, वेगवती, विजया और रति को देना चाहते हैं ।' कुन्ती ने स्वीकार किया और चारों के लग्न हो गए । दुर्योधन को सन्देश Jain Education International ५२९ पाण्डव-परिवार द्वारिका में सुखपूर्वक रह रहा था । युधिष्ठिरज्जी भी सन्तोषपूर्वक काल व्यतीत कर रहे थे, किन्तु भीम और अर्जुन को सन्तोष नहीं था । उन्होंने श्रीकृष्ण को प्रेरित किया । उन्होंने द्रुपद नरेश के पुरोहित को जो अत्यन्त चतुर था -- सन्देश ले कर हस्तिनापुर भेजा । दुर्योधन की सभा जुड़ी हुई थी । उस समय दूत ने उपस्थित हो कर महाराजा दुर्योधन का अभिवान कर के कहा; - 'राजन् ! आपके बन्धु पाँचों पाण्डव अभी द्वारिका में हैं और उन्होंने मेरे साथ आपको सन्देश भिजवाया है कि हम बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञात रह चुके और अपना वचन निभा चुके हैं | अब आपको हमें आमन्त्रित कर के अपने वचन का पालन करना चाहिए । न्याय नीति, सदाचार एवं वचन का पालन करना तो प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है, फिर आप तो न्याय-नीति एवं सदाचार का पालन ही नहीं, रक्षण भी करने वाले कुरुकुल- तिलक हैं । सभ्यता का सिद्धांत है कि छोटा भाई बड़े को आमन्त्रित कर के सम्मान करे | अब आपको इस शुभ कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिए ।" दुख की बात सुन कर दुर्योधन तप्त हो गया । उसकी भृकुटी चढ़ गई, होठ काँपने लगे, आँखें और चेहरा रक्तिम हो गया । वह रोषपूर्वक कोला- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy