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विराट द्वारा पंण्डवों का अभिनन्दन
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वल्लव नहीं होता, तो में भी नहीं होता। वास्तव में ये लोग हमारे सेवक नहीं, स्वामी हैं ! हमें इनकी पूजा कर के इनके चरणों में राज्य सहित अपने को अर्पण कर देना चाहिए।"
विराट द्वारा पाण्डवों का अभिनन्दन
राजा ने बृहन्नट को अन्तःपुर से बलवाया। वह उसी स्त्री-वेश में राजा के निकट आया। राजा उसके चरणों में गिर पड़ा और आग्रहपूर्वक बोला-"देव ! अब इस छद्मवेश को उतार फेंकिये और सिंहासन पर बिराज कर राज्याभिषेक करवाइये।"
अर्जुन ने कठिनाई से राजा से अपने पाँव छुड़ाये और कहा--"आपके राजपुरोहित कंकदेव को बुल!इये । वे हमारे अग्रगण्य एवं पूज्य है ।" युधिष्ठिरादि चारों बन्धु आये। राजा ने उन सब को उच्चासन पर बिठा कर सत्कार किया और राज्य ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगा। युधिष्ठिरजी ने कहा
"महाराज ! आप स्वामी हैं। अपनी शक्ति के अनुसार आपकी प्रत्येक प्रकार से सेवा करना हमारा कर्तव्य था। हम अपने समक्ष आपका अनिष्ट नहीं देख सकते थे। हमने जो कुछ किया, अपना कर्त्तव्य समझ कर किया है। हमें अपना एक वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत करने के लिए आपका आश्रय लेना पड़ा। आपके आश्रय में हमारा एक वर्ष व्यतीत हो चुका है। अब हमें प्रकट होने में कोई बाधा नहीं रही। हम पाँचों भाई हस्ति
पुर नरेश महाराजाधिराज पाण्डु के पुत्र हैं। जुआ में राज्य हार कर बारह वर्ष वनवास रहे और एक वर्ष अज्ञातवास का यहाँ व्यतीत किया । अब हम पुनः हस्तिनापुर का राज्य प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे। आपके अन्तःपुर में सैरन्ध्री नामकी दासी है, वह हमारी पत्नी द्रौपदी है । हमारी मातेश्वरी नगर के एक घर में रह रही है । हम सब आपके आभारी हैं कि आपके आश्रय से हमारा विपत्तिकाल टल गया। आपके राज्य की हमें आवश्यकता नहीं है । आप न्याय-नीतिपूर्वक अपना राज्य चलाते रहें।"
विराट नरेश ने पाण्डवों का अपूर्व सम्मान किया। उन्हें दासता से मुक्त ही नहीं किया, वरन् स्वामी के रूप में और स्वयं को उनका सेवक बताते हुए उन्हें राज्यभर के परमादरणीय परम-रक्षक घोषित किया और अब वे राज्य के परम मान्य अतिथि बन चुके थे। द्रौपदी अब सेविका नहीं रही। महारानी स्वयं उसकी सेवा करने लगी । कुन्ती माता भी सम्मानपूर्वक राज-प्रासाद में लाई गई और सर्वत्र हर्ष छा गया।
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