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________________ तीर्थङ्कर चरित्र कर्ण को ले कर युद्धस्थल से निकल गया । अब अर्जुन ने युवराज से कहा--" दुर्योधन गायें ले कर चला गया है। अतः रथ को उसके पीछे लगाओ और बेगपूर्वक चलो ।' थोड़ी ही देर में दुर्योधन के निकट जा कर अर्जुन ने ललकारा। युद्ध जमा। अर्जुन के मन में दुर्योधन को मारने की इच्छा नहीं थी । इसलिए उसने प्रस्थापन विद्या का स्मरण कर बाणवर्षा की, जिससे सारी सेना और दुर्योधन के हाथ से शस्त्र गिर गए और वे सब निद्राधीन हो गए । अर्जुन ने गो-वर्ग को स्वस्थान की ओर मोड़ा और सभी गायें भाग कर स्वस्थान पहुँच गई। अर्जुन और राजकुमार भी राजधानी लौट आए । अर्जुन त पुनः स्त्रीवेश धारण कर अन्तःपुर में चला गया और युवराज राजा के पास पहुँचा। राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और हर्षावेग कम होने पर पूछा:-- "पुत्र ! मैं तो हताश हो गया था । मुझे तुम्हारे सकुशल लौटने की किचित् भो आशा नहीं थी यह कोई दैविक चमत्कार ही है । अन्यथा कौरव-बल रूपी महासागर में तुम एक तिनके के समान थे । कहो, तुम किन प्रकार विजयी बने ?" ५२६ कककककककककककककककककक "पिताश्री ! में क्या कहूँ। मैं तो उस महासागर को देख कर डर गया था और लौटना चाहता था, किन्तु मेरे सारथि बने हुए बृहन्नट ने मुझे फटकारा और स्वयं ने स्त्री-वेश उतार कर शस्त्र उठाये । मैं सारथि बना और वह महापुरुष युद्ध करने को तत्पर हुआ । उसके धनुष की टंकार से ही बड़े-बड़े वीरों के हृदय दहल गए । उनका उत्साह मारा गया और आगे खड़े हुए द्रोणाचार्य, भष्मपितामह आदि के मुंह से उद्गार निकले कि "यह तो अर्जुन है ।" वे आगे मे हट कर एक ओर खड़े हो गए । इस वीर के युद्ध-कोशल को मैं कैसे बताऊँ ? में उसका सर-संधान ही देख सका और बाण वर्षा से छाई हुई घटा दया शत्रुओं के शरीर से रक्त के निकलते हुए झ नों को देख सका । परन्तु वाण छोड़ना और पुनः बाण ग्रहण करना नहीं देख सका। पिताजी ! वह वीरवर पाण्डु-कुल तिलक अर्जुनदेव ही होगा और किसी कारण अपनेको गुप्त रख कर हमारे यहाँ रहता है। उसने अपने को छुपाये रखने के लिए मुझसे कहा है कि- - महाराज या किसी के भी सामने मेरा नाम नहीं लेना और अपना ही युद्ध-पराक्रम बतलाना ।' किन्तु में ऐसा नहीं कर सका और आपको सच्ची बात बता दी। वह महापुरुष तो हमारे लिए देव के समान पूज्य है । उसने हमारे गौरव और जीवन की रक्षा की है। हमें तो यह सारा राज्य ही उसको अर्पण कर देना चाहिए ।" " पुत्र ! में तो पराजित हो कर बन्दी बन चुका था । यदि अपना प्रधान रसोइया Jain Education International သရ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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