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________________ गो-वर्ग पर डाका और पाण्डव-प्राकट्य ५२५ နီနီနီနီနီနနနနနနနနနနနနနနနနနနနနနနန प्रकार को हानि नहीं होगी और वे विजयी हो कर लौटेंगे।" पुरोहित के शब्दों ने राजा की चिन्ता मिटा दी। उन्हें सन्तोष हुआ और घबड़ाहट मिटी। उधर रणभूमि में दुर्योधन, कर्ण, द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह आदि महान योद्धाओं और विशाल सेना को देख कर उत्तरकुमार का साहस समाप्त हो गया। उसने सारथि से कहा;-- "रय मोड़ो। इस महासागर में हम एक बिन्दु भी नहीं हैं । हमारे विनाश के सिवाय दूसरा कोई परिणाम नहीं हो सकता । चलो लौटो।" -"नहीं युवराज ! क्षत्रिय हो कर मृत्यु से डरते हो ? अपमानित जीवन ले कर कोनसा सुख पा सकोगे? मरना तो कभी-न-कभी होगा ही, फिर कायरता का कलंक और कुल को कालिमा लगा कर मरना कैसे सह सकोगे ? अच्छा, तुम रास थाम कर सारथि बनो। मैं युद्ध करता हूँ।" कुमार सारथि बना और बृहन्नट स्त्रीवेश छोड़ कर युद्ध करने लगा। उसके युद्धपराक्रम को देख कर कुमार आश्चर्य करने लगा। वह सोचता-'यह कोई विद्याधर है, देव है, या इन्द्र है ? बड़ी भारी सेना को तुणवत् गिन कर सब को रौंदने वाला यह कोई साधारण मनुष्य या नपुंसक कदापि नहीं हो सकता । उसके गाण्डीव धनुष की टंकार सुन कर द्रोणाचार्य और भीष्म-पितामह आदि कहने लगे-'यह तो अर्जुन ही होना चाहिए । अर्जुन के अतिरिक्त इतना दुर्द्धर्ष साहस एवं वीरता अन्य किसी में नहीं हो सकती।' धनुष की टंकार और ये शब्द सुन कर युवराज में साहस बढ़ा। वह रथ को अर्जुन की इच्छा एवं आवश्यकतानुसार चलाने लगा। रथ जिधर और जिस ओर जाता, उधर आतंक छा जाता और सेना भाग जाती । बड़े-बड़े योद्धा भी कांप उठते । अर्जुन की मार का अर्थ वे प्रलय की आँधी और विनाशकारी विप्लव लगाते । अर्जुन की भीषण मार को द्रोणाचार्य और भीष्मपितामह जैसे महावीर भी नहीं सह सके और अग्रभाग से हट गये, तो दूसरों का कहना ही क्या है ? दुर्योधन मे कर्ण को अर्जुन से लड़ने के लिए छोड़ कर, स्वयं सेना के साथ गायों का झुण्ड ले कर चलता बना। कर्ण और अर्जुन का युद्ध बहुत समय तक चला । दोनों वीर अपनी पूरी शक्ति से लड़ते रहे। कर्ण के सारथि ने कर्ण से कहा-" दुर्योधन गो-वर्ग ले कर चला गया है । अब युद्ध करने का कारण नहीं रहा। अतः अब हमें भी लौट जाना चाहिए।" किन्तु कर्ण नहीं माना । अर्जुन की मार बढ़ती गई । अन्त में घायल सारथि ने अकुला कर रय मोड़ा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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