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तीर्थंकर चरित्र
जब विराट नरेश सुशर्मा पर चढ़ाई करने चले गये और राजकुमार उत्तर कुछ सैनिकों के साथ राजधानी में रहा, तब उत्तर-दिशा का सीमा-रक्षक दौड़ता हुआ आया और बोला-
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" हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन ने विशाल सेना और कर्णादि योद्धाओं के साथ अपनी सीमा में प्रवेश किया है और गो-वर्ग को ले जा रहा है। इन दुष्टों से अपने गोधन और राज्य की रक्षा करो।"
कककककककककक
राजकुमार उलझन में पड़ गया। उसके पास पूरी सेना भी नहीं थी । वह क्या करे ? वह वीर था । अपने थोड़े-से सैनिकों को ले कर वह शत्रु का सामना करने को तैयार हुआ । अर्जुन समझ गया कि दुर्योधन की कूटनीति का रहस्य क्या है ? उत्तरकुमार शस्त्र सज कर तैयार हो गया, किन्तु उसके पास कुशल रथ-चालक नहीं था । उसे वैसा सारथी चाहिए जो युद्ध की चाल के अनुसार रथ चलाता रहे। यह चिन्ता की बात थी । महारानी भी इस चिन्ता में डूबी हुई थी । उस समय संरंध्री नाम की दासी के रूप में द्रौपदी ने महारानी और राजकुमार से कहा - " राजकुमारी का संगीत - शिक्षक बृहन्नट बहुत ही कुशल एवं अनुपम सारथि है । मैने उसे पाण्डवों के राज्यकाल में रथ चलाते देखा है । आप उसे ले जाइए ।"
सैरन्ध्री की बात महारानी और राजकुमार को सन्देहजनक लगी । " जो पुरुषत्व से हीन है, वह भीषण युद्ध के समय साहस ही नहीं रख सकता और न टिक ही सकता है । उससे रथ कैसे चलाया जा सकता है ?" फिर भी दूसरे के अभाव में सैरन्ध्री की बात मान कर बृहन्नट को रथ चालक बनाया । बृहन्नट भी अपने शस्त्र ले कर रथ पर चढ़ बैठा और राजकुमार को ले कर युद्धभूमि में आया ।
विराट नरेश ने युद्धभूमि से लोटते ही जब दुर्योधन के आक्रमण और युवराज के युद्ध में जाने की घटना सुनी, तो उसके हृदय को भारी आघात लगा । वह हताश हो कर बोला- "हा, दुर्दैव ! कहाँ कौरवों की महासेना और कहाँ थोड़े-से सैनिकों के साथ मेरा प्यारा पुत्र ? महा दावानल में वह एक पतंगे के समान है । हे प्रभो ! अब क्या होगा ?"
सैरन्ध्री ने बृहन के शौर्य और वीरता की प्रशंसा की और राजा को निश्चित रहने का निवेदन किया । किन्तु राजा को विश्वास नहीं हुआ । जब युधिष्ठिरजी ने आ कर विश्वास दिलाया कि - " महाराज ! बृहन्नट साथ है तो वह एक ही उस महासेना के लिए पर्याप्त है, जैसा कि वल्लव है । आप मेरी बात पर विश्वास रखिये। युवराज को किसी
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