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विराट नगर में अज्ञात वास + + + कीचक-वध दयारकारुदकबककककककककृपयायककन्यवानन्दकककककककृयाम
गई । पिंगला की बात सुन कर कृत्या अपने साधक ब्राह्मण पर रुष्ट हुई और उसका विनाश करने के लिए चली गई। उसके जाने के बाद मैं और मातेश्वरी आपकी मूर्छा दूर करने का उपाय सोचने लगी। इतने में मुझे नागेन्द्र की बात स्मरण में आई । मेरे पभिरण का कमल प्रफुल्ल है, इसलिए मेरा सुहाग सुरक्षित है।" इतने में उस भील ने कहा- " भद्रे ! देखती क्या है ? इस पुरुष के गले में रही हुई रत्नमाला निकाल और सरोवर के जल में इसे धो कर उस जल को इन पर छिड़क । इनकी मूर्छा दूर हो जायगी।"
“इस प्रयोग से आपकी मूर्छा दूर हुई और हमारा संकट टला ।" युधिष्ठिर ने पूछा--" वह उपकारी भील कहाँ गया ?" उन्होंने इधर-उधर देखा, तो भील तो क्या, वह सराबर भी दिखाई नहीं दिया। उसी समय एक दिव्य-पुरुष प्रकट हुआ और प्रसन्नताप्रवक बोला--
“राजन् ! तुमने एकाग्रतापूर्वक तप सहित महामन्त्र का स्मरण किया, उसी का वह फल है । मैं सौधर्म-स्वर्ग का धर्मावतंस देव हूँ। में धार्मिक आत्माओं का सहायक बनता हूँ। मुझे ज्ञान से तुम्हारी विपत्ति ज्ञात हुई । उसका निवारण करने के लिए ही में यहाँ आया हूँ। तुमने अश्वसेना देखी, वह मेरी ही बनाई हुई थी । द्रौपदी का हरण भी मैने ही किया था और कोड़े की मार का तो केवल आपको आभास ही कराया गया था । सरोवर को विषमय भी मैने ही बनाया था और भील भी मैं ही बना था । आपका अनिष्ट टल गया है । अब में अपने स्थान पर जाता हूँ। में सदैव तुम्हारा सहायक रहूँगा।"
आठवें दिन सभी को तपस्या का पारणा करता था। धान्य और फल आदि से द्रौपदी ने भोजन बनाया। भोजन करते समय धर्मराज के मन में भावना उत्पन्न हुई कि यदि इस समय कोई सुपात्र का योग प्राप्त हो, तो उन्हें प्रतिलाभित किया जाय । उनकी भावना सफल हई। एक तपस्वी महात्मा उधर आ निकले । उनके मासखमण का तर था। धर्मराज ने उन्हें उल्लसित भावों से दान दिया। निकट रहे व्यन्तर देवों ने जय-जयकार किया और दान की महिमा गाई। पाण्डव-परिवार द्वैतवन में सुखपूर्वक रहने लगा।
विराट नगर में अज्ञात वास +++ कांचक-वध
पाण्डवों के वनवास के बारह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और अब एक वर्ष अज्ञात-वास (गुप्त) रहना था । युधिष्ठिरजी ने अज्ञात-वास की अपनी योजना बताई
" बन्धुओं ! बीते हुए बारह वर्ष अधिकांश वन में दिताये। अब एक वर्ष हमें
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