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________________ पाण्डवों पर भयंकर विपत्ति ककककककककककककककककककककककककककककककककककककक बदन्छन्द्रकान्यकाकादक "स्वामिन् ! मैने कृत्या-राक्षसी की उपासना कर के साध लिया है। उसमें अपार शक्ति है। यदि वह क्रुद्ध हो उठे, तो भयकर विनाश कर के हजारों-लाखों को भस्म कर सकती है । मैं आपकी इच्छानुसार सात दिन के भीतर ही पाण्डवों को समाप्त कर दूंगा । और आप का कार्य सिद्ध हो जायगा।" इस प्रकार तुम्हें मारने का प्रयास किया जा रहा है। मैं तुम्हें सावधान करने आया हूँ। तुम उस भयानक राक्षसी से बचने का उपाय करो। एक सप्ताह में किसी भी समय तुम पर संकट आ सकता है।" . . __ "महात्मन् ! हमारे अशुभ कर्मों का उदय चल ही रहा है। दुर्योधन की कृतघ्नता का प्रमाण हमें भी मिल चुका है। मुक्त होने के बाद उसने अपने बहनोई जयद्रथ को हम पर आक्रमण करने भेजा था और उसने भयंकर आक्रमण किया । जब हम जम्बूक्रीड़ा करने वन में गये, तो द्रौपदी और माताजी आश्रम में थे। उस दुष्ट ने द्रौपदी-का हरण किया । द्रौपदी ने आक्रन्द करते हुए हमें पुकारा । द्रौषदी की पुकार भीम और अर्जुन ने सुनी। द्रौपदी का हरण हुआ, तब मातेश्वरी ने जयद्रथ को पहचान लिया था। जब भीम और अर्जुन जयद्रथ के पीछे भागे, तब मातेश्वरी ने कह दिया था कि-"जयद्रथ को मत मारना, उसे मारने से दुःशला विधवा हो जाएगी।" भीम और अर्जुन ने जयद्रथ के निकट पहुँच कर युद्ध किया और द्रौपदी को मुक्त करवा कर जयद्रथ को बन्दी बना लिया। उन्होंने जयद्रथ को मारा तो नहीं, परन्तु उसके मस्तक पर बाण से पाँच लकीरें खिंच कर और पांच सिखा जैसी बना कर छोड़ दिया और कहा; "यदि माता तुम्हें जीवित छोड़ने का आदेश नहीं देती, तो तुम्हारी अन्त्येष्ठि यहीं हो जाती। जाओ और मातेश्वरी का उपकार मानते हुए नीतिपूर्वक जीवन व्यतीत करो।" जाते-जाते जयद्रथ कहता गया--"तुमने मेरे मस्तक पर पांच सिखाएं बना कर मुझे जीवन भर के लिए कुरूप एवं दुर्दृश्य बना दिया है, परंतु याद रखना कि मेरी ये पाँच सिखाएँ तुम पाँचों की मृत्यु का निमित्त बनेगी।" ___ जयद्रथ गया। उसकी असफलता ने दुष्ट दुर्योधन को नयी विपत्ति खड़ी करने को बाध्य किया। हमारा धर्म हमारे साथ है। आपके प्रताप से यह विपत्ति भी टल जायगी।” नारदजी चल दिये । युधिष्ठिर ने सब से कहा-'नारदजी ने हमें सावधान किया है । अब कुछ उपाय सोचना चाहिए कि कृत्या-राक्षसी से किस प्रकार रक्षा की जाय।' भीम ने कहा-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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