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" आप चिन्ता नहीं करें। मेरी गदा उम दुष्टा राक्षसी को भी समाप्त कर देगी।' "मुझे तुम्हारी शक्ति पर पूरा विश्वास है, परन्तु यदि राक्षसी खुली लड़ाई नहीं लड़ कर अदृश्य रही हुई हम पर आक्रमण कर तो उसका निवारण कैसे होगा ?' युधिष्ठिर की आशंका सभी के समझ में आई । निश्चय हुआ कि सब को तपस्यापूर्वक नमस्कार महामन्त्र का एकाग्रतापूर्वक स्मरण करना चाहिए। धर्म ही हमारा रक्षक होगा । इससे हमारे अशुभकर्मों की निर्जरा होगी। हमारे पापकर्म ही हम पर विपत्तियाँ लाते हैं । हम उन पापकर्मों को दूर हटाने का प्रयत्न करें, इससे विपत्तियों का मूल ही नष्ट हो जायगा और जो निकाचित्त- अवश्यंभावी है वह तो भोगना ही होगा । बस, हमें अभी से सप्ताह भर के लिए अनशन कर के ध्यानारूढ़ हो कर महामन्त्र का स्मरण करना है | सावधान हो जायो ।'
तीर्थंकर चरित्र
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युधिष्ठिरजी के आदेश को सभी ने मान्य किया। सभी ने चतुविध आहार का त्याग कर पृथक्-पृथक् आसन लगा कर बैठ गए और महामन्त्र का एकाग्रतापूर्वक स्मरण करने लगे । इस प्रकार साधना करते उन्हें छह दिन व्यतीत हो गए। सातवें दिन उपद्रव होने को सम्भावना थी । वे सभी सावधान थे । उनके शस्त्रास्त्र उनके पास ही रखे हुए थे । यकायक आंधी में उठे हुए धूल के गोल चक्र के सम्मान धुएँ का एक लम्बा-चौड़ा वर्तुल, स्तंभ के समान चक्कर पाता हुआ दिखाई दिया और थोड़ी ही देर में उस धुम्रमय वर्तल के पीछे बड़ी भारी अश्वसेना आती हुई दिखाई दी । निकट आने पर अश्वसेना के अग्रणी ने कहा
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अरे ओ भिखारियों ! हटो यहाँ से इस रमणीय वन में महाराजाधिराज धर्मावतंस रहेंगे।"
भीमसेन इसे सहन नहीं कर सका ध्यान छोड़ कर खड़ा हुआ और बोला'बरे धृष्ट ! कौन है तू ? तू क्षुद्रतापूर्ण व्यवहार क्यों कर रहा है ?यदि उडता की, तो जीवन के लाले पड़ जाएंगे |
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बाचालता बढ़ी और युद्ध बारम्भ । गया। अश्वसेना ने पाँचों पाण्डवों को घरे में ले लिया। पाण्डवों ने शस्त्र उठा कर भीषण बाण-वर्षा की। अश्वसेना के पाँव उखड़ गए और सारी सेवा भाग खड़ी हुई। पाण्डवों ने भागती हुई सेना का पीछा किया | इश्वर तपस्विना कुन्ती और द्रोपदी इस सडक से चिन्ताग्रस्त हो कर बंटी की कि एक राजचिन्ह धारा पुरुष उनके आश्रम में आया और द्रौपदी को उठा कर, उसे अपने अश्व पर लाद कर चल दिया । द्रौपदी उच्च एवं तीव्र स्वर से आॠन्द करने लगी । द्वीपदी का आॠन्द पाण्डवों
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