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तीर्थंङ्कर चरित्र
भाग्य प्रतिकूल हैं, तो कुछ दिन बाद अनुकूल भी हो सकता है । अपना कर्त्तव्य समाप्त नहीं हो गया । हम फिर भी अपना कार्य करेंगे | अनेक असफलताओं के पीछे भी आशा बनी रहती है और व्यक्ति को सफल मनोरथ करती है। आपको सामान्य राजा से महाराजाधिराज तथा सम्राट बनाने में जो नियति कार्य कर रही थी, वह आपको भविष्य में निष्कंटक भी बनाएयी । अपना काम बाबा-लता के सहारे साहसपूर्वक आगे बढ़ाते रहना है।" "पाण्डवों ने आपको बन्धनमुक्त कराया, तो इसमें उन्होंने कौनसा उपकार किया ? प्रजा की समस्त शक्ति पर राजा का अधिकार होता ही है । प्रजा में से ही सनिक भर्ती होते हैं और साम्राज्य की रक्षा करते हैं । प्रजा से शक्ति प्राप्त कर के साम्राज्य को सबल परिपूर्ण एवं समृद्ध बनाने का राजा का अधिकार है ही । अतएव आप इस दुश्चिन्ता को छोड़ कर राजधानी में पधारें । विपत्ति का स्मरण कर उदासीन बना रहना तो पलायनवाद है । चलिये, उठिये और प्रयाण की आज्ञा दीजिये "
कर्ण के वचनों ने दुर्योधन को उत्साहित किया और वह हस्तिनापुर पहुँचा ।
पाण्डवों पर भयंकर विपत्ति
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ရားကားရား ကျောာာာာာာာများ၊
पाण्डव-परिवार द्वैत-वन में शान्तिपूर्वक अपना वनवास काल पूर्ण कर रहा था । उन्हें विश्वास हो गया था कि अब दुर्योश्वन कोई नया संकट उपस्थित नहीं करेगा। किन्तु उनका अनुमान वधर्थ रहा। एक दिन बान नारदवी आ पहुँचे । कुन्तीदेवी और समस्त पाण्डव - परिवार ने नारदजी का भावपूर्ण कादर-सत्कार किया । नारदजी ने कुशलक्षेम पृच्छा के पश्चात् कहा --
"धर्मराज ! तुमने दुर्योधन पर उपकार कर के उसे बन्धनमुक्त करवाया और समझते होंगे कि जब दुर्योधन ने तुम्हारे सरकत नहीं रखी। किन्तु मैं तुम्हें सावधान करता हूँ । दुर्योधन के मन में अपनी पराज और तुम्हारे उपकार ने रचाया ही
| उसने नगर भर में द्विढोरा पिटवाया कि
"जो कोई व्यक्ति पाण्डवों को बस्त्र, शस्त्र, मन्त्र तन्त्र या किसी भी प्रयोग से एक सप्ताह में मार डालेगा, उसे आधा राज्य दिया जायगा ।"
उद्घोषणा सुन कर पुरोचन पुरोहित का भाई, दुर्योधन के निकट बाया और कहने लगा;
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