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________________ लज्जित दुर्योधन की लज्जा कर्ण मिटाता है agesepepepepages. अर्जुन और चित्रांगद, दुर्योधन को ले कर युधिष्ठिरजी के पास आये। दुर्योधन मन में बहुत ही अकुलाया । वह इस मुक्ति से मृत्यु को अधिक चाहता था, परन्तु विवश था । युधिष्ठिर के पास आ कर चित्रगद ने युधिष्ठिरादि को प्रणाम किया और दुर्योधन को उनके समीप मुक्त कर के प्रणाम करने का कहा। किंतु वह नीचा मस्तक किये खड़ा रहा । कुन्ता ने दुर्योधन को आशीर्वाद दिया । युधिष्ठिर ने दुर्योधन का हाथ पकड़ कर समीप बिठाया और मधुर वचनों से बोले " वत्स ! चिन्ता मत कर। परिस्थिति पलटने पर राहु जैसा तुच्छ ग्रह भी चन्द्रमा और सूर्य पर छा जाता है, किंतु इससे राहु का महत्व नहीं बढ़ता। इसी प्रकार तेरे बन्दी होने से इनका महत्व नहीं बढ़ा तू स्वस्थ हो और शीघ्र हो हस्तिनापुर जा । वहाँ राजधानी सुनी होगी और सभी जैन चिन्तित होंगे ।" भानुमती पति को मुक्त देख कर प्रसन्न हुईं। दुर्योधन, पत्नी और साथियों सहित चला और अपना पड़ाव उठा कर हस्तिनापुर पहुँचा । निष्फल पराजित एवं लज्जित दुर्योधन की उदासी अधिक बढ़ गई थी ! लज्जित दुर्योधन की लज्जा कर्ण मिटाता है दुर्योधन गया तो था पाण्डवों को समाप्त करने, परन्तु लौटा अपने पर पाण्डवों के उपकार का भारी बोझ ले कर - खिन्न, म्लान, अपमानित एवं सत्वहीन -सा हो कर । होना धार- विरोध त्याग कर भ्रातृभाव भक्ति तथा प्रत्युपकार की भावना से हृदय परिपूर्ण । किन्तु हुई वैर में अत्यधिक वृद्धि । वह पाण्डवों को नष्ट किये बिना नगर में प्रवेश करना ही नहीं चाहता था और बन के एकान्त प्रदेश में रह कर अपमानित जीवन बिताना तथा याण्डवों को नष्ट करने की कोई नई युक्ति लगाना चाहता था । बन्दी दशा में उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया था और बेड़ी-बन्धन के कारण पाँव भी सूज गये। वह हताश हो कर एक वृक्ष के नीचे सोया था । भानुमति उसके पास बैठी पंखा झल रही थी। सेवक गण विविध प्रकार के कार्य कर रहे थे कि इतने में कथं आया और दुर्योधन को समझाने Jain Education International - ५०६ लगा; - " राजेन्द्र ! हताश होना और शोकाकुल रहना व्यर्थ है । भवितव्यता को टालना किसी के सामर्थ्य की बात नहीं है । जय और पराजय तो होती ही रहती है। आज अपना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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