SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०८ की सेना लड़ने लगी । यह लड़ाई विद्याधरों में आपस में हो रही थी। दोनों ओर की येना शत्रुता का भाव नहीं था, मात्र आज्ञापालन और विजय श्री करने लगे थे । पाने के लिए हो के युद्ध 'यह कौन आया- - युद्ध विद्याधर-पति चित्रांगद के मन में प्रश्न उत्पन्न हुआकरने उसकी शक्ति कितनी हैं ?" उसने आक्रामक को पहिचानने का प्रयत्न किया । उसे अपने विद्यागुरु अर्जुनदेव दिखाई दिये । वह हर्षोन्मत्त हो उठा और युद्ध रोकने की आज्ञा दे कर, अर्जुन के निकट आकर प्रणाम किया। चित्रांगद को देख अर्जुन को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा--"तुम यहाँ कैसे और दुर्योधन को बन्दी क्यों बनाया ?" तीर्थंकर चरित्र 11 'महाभाग ! दुर्योधन तो आपका शत्रु है । आपके पूरे परिवार को समाप्त करने के लिए ही वह यहाँ आया और आते ही मेरे इस सुन्दर भवन पर अधिकार कर के कोड़ा करने लगा । मुझे नारदजी ने कहा कि- " दुर्योधन पाण्डव-परिवार को समाप्त करने के लिए द्वैत वन में गया है।" तब मैं सेना सहित यहां आया और युद्ध कर के उसे बन्दी बनाया | आप अपने घोर शत्रु की सहायता करने आये, यह कितने आश्चर्य की बात है ?" --" मित्र ! मेरे ज्येष्ठ-बन्धु युधिष्ठिरजी के पास दुर्योधन की पत्नी भानुमती आई और रो-रो कर पति को मुक्त कराने की प्रार्थना करने लगी । बन्धुवर तो धर्मावतार हैं। उन्होंने दुर्योधन को दुष्टता भूल कर एक भाई के नाते उसे छुड़ाने की आज्ञा दी । उसी आज्ञा के अधिन हो कर में आया हूँ ।" " आप चाहें, तो दुर्योधन अभी से मुक्त है । चलिये, जरा उसे देख लीजिये । वह भी देख ले कि उसका मुक्ति-दाता कौन हैं ?" दोनों बन्दी अवस्था में रहे हुए दुर्योधन के निकट आये । अर्जुन को चित्रांगद के साथ देख कर, दुर्योधन का हृदय बैठ गया । वह समझ गया कि अर्जुन ही उसे छुड़ाने वाला है। इस मुक्ति से तो उसे बन्दी बना रहना अच्छा लगा। उसकी दृष्टि झुक गई, मस्तक नीचा हो गया । चित्रांगद ने कहा- “दुर्योधन ! तुम्हारे मुक्तिदाता थे अर्जुन देव हैं। इनका उपकार मानो । इनकी कृपा तुम मुक्त हुए। सोचो कि तुम में कितनी क्षुद्रता और अधमता है और इनमें कितनी महानता है । तुम्हारे जैसे घोर शत्रु को भी ये भाई मान कर मुक्त कराने आये । चलो, अभी हम धर्मराज के पास चलें। वहीं तुम्हें मुक्त कर दिया जायगा ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy