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अर्जुन द्वारा तलतालव और विद्युन्माली का दमन किय कयमककककककककककककककककककककककककककककककन
और राजा को किसी प्रकार मरवा कर खुद राजा बनने का मनोरथ करने लगा। अपने मनोरथ सिद्धि के लिए वह खर-दूषण के वंशज, सुवर्णपुर के निवातकवच राक्षस से 'मला । वह अत्यन्त क्रूर और महाबली था। उसकी सेना भी अपराजेय थी । विद्युन्माली ने उसके साथ मैत्री सम्बन्ध जोड़ा। उस राक्षसराज के लिए कहा जाता था कि यदि कोई लक्ष्यवेधी एक साथ उसके ताल और हाथ को वेध दे, तभा वह मर सकता है, अन्य किसी उपाय से नहीं मर सकता। इस धारणा पर से उसका उपनाम 'तलतालव' प्रसिद्ध हो गया या। इस महाबली राक्षस को सेना सहित साथ ले कर विद्युन्माली ने अपने ज्येष्ठ-बन्धु राजा इन्द्र पर चढ़ाई कर दी और उसके नगर को घेरा डाल दिया । राजा इन्द्र ने राक्षसराज के भय से नगर के द्वार बन्द करवा दिये और भयभीत तथा चिन्ताग्रस्त रहने लगा। एकबार उसने एक भविष्यवेत्ता को इस विपत्ति के निवारण का उपाय और अपना भविष्य पूछा । भविष्यवेत्ता ने कहा-"राजन् ! तुम्हारे शत्रु का पराभव, पाण्डु-पुत्र वीरवर अर्जुन द्वारा हो सकता है। वही इस दुनिवार विपत्ति का एकमात्र सपाय है । बभी वे वीरचर इन्द्रनील पर्वत पर विद्या साध रहे हैं। यदि आप उनसे विनम्र प्रार्थना करेंगे, तो वे आपकी सहायता करने को अवश्य ही तत्पर होंगे और आपकी विपत्ति टल जायगी।"
भविष्यवेत्ता की बात सुन कर इन्द्र प्रसन्न हुआ और मुझे बुला कर आपको सहायक बनाने के लिए भेजा । में भी उत्साहपूर्वक बापके पास आया । मुझे अपने पिता के उपकारी मित्र के पुत्र से, एक बन्धु के नाते मिलना था । आपके हाथ में यह रही अंगूठी है, जिसे मेरे पिता ने बापके पिता को दी थी । बाप इस बंगूठी को पानी में प्रक्षाल कर, उस पानी से अपनी देह का सिंचन करें, जिससे ये घाव मिट जाये बौर शरीर स्वस्थ हो जायगा । फिर आपको इन्द्र को विपत्ति मिटाने चलना होगा।"
बर्जुन ने कहा-“महानुभाव ! आप तो मेरे ज्येष्ठ-बन्धु, महाराज युधिष्ठिरजी के समान हैं । में आपकी बाजानुसार इन्द्र को सहायता करने को तत्पर हूँ। चलिये, शीघ्र चलिये।"
बर्जुन रक्ष में बैठा और रथ पवन-वेष से चलने लया । थोड़ी ही देर में वे वैताढ्य पर्वत पर पहुंच गए । चन्द्रशेखर, अर्जुन को इन्द्र के पास ले जाना चाहता था । वहां से इन्द्र की विशाल सेना के साथ युद्ध के लिए प्रयाण करने की उसकी योजना थी । परन्तु अर्जुन ने कहा-" में पहले शत्रु से इस राज्य की रक्षा करूंगा। उसके बाद इन्द्र के सम्मुख जाऊँगा।" ऐसा ही हुआ । चन्द्रशेखर सारथि बना और अर्जुन शत्रु-दल को ललकार कर युद्ध में प्रवृत्त हुबा । सत्र भी साधारण नहीं था । उसे अपने भेदियों द्वारा ज्ञात हो गया
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