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तीर्थकुर चरित्र
कमर में से पकड़ कर ऊपर उठा लिया और चक्र के समान धुमाने लगा । घुमाने के बाद एक शिला पर पछाड़ने की उसकी इच्छा थी। किन्तु इसी समय वह किरात जैसा लगने व ला शत्रु अपना दिव्य रूप प्रकट कर के सम्मुख खड़ा हो गया । अर्जुन स्तब्ध रह कर उसे एकटक देखने लगा। अब वह पुरुष हँसता हुआ बोला
__" महानुभाव ! मैं महाभाग्य विद्याधर नरेक विशालाक्षजी + का पुत्र चन्द्रशेखर हूँ। बहुन-सी विद्याएँ मैने सिद्ध की है। मेरे युज्य पिताश्री को आपके पिताश्री ने जीवन-दान दिया था। मैंने आपका पराक्रम देखने के लिए ही यह माया रची थी और आपसे युद्ध किया था। में आपके पराक्रम, भव्यता और परोपकार-परायणता से प्रसन्न हूँ और आपको यथेच्छ पुरस्कार मांगने की अनुमति देता हूं। साथ ही में अपने मित्र के उद्धार के लिए आपकी सहायता लेना चाहता हूँ।"
---" बन्धुवर ! आपका वरदान अभी अपने पास घरोहर के रूप में रहने दें। जब मुझे आवश्यकता होगी, ले लंगा। पहले आप अपना प्रयोजन बताइये कि भापके किस मित्र को मेरी सहायता की आवश्यकता है और उस पर किसकी ओर से कोनसी विपत्ति आई है"--अर्जुन ने पूछा।
-"वीरवर ! वैताढय पर्वत पर रथनुपुर नगर है। वहाँ के विद्युत्प्रभ नरेश के दो पुत्र है--इन्द्र और विद्युन्माली। राजा विद्युत्प्रभ ने अपने ज्येष्ठ-पुत्र इन्द्र को राज्यासन और कनिष्ठ पुत्र विद्युन्माली को युवराज-पद दे कर निग्रंथ-प्रव्रज्या स्वीकार की। राजा इन्द्र और उनका भाई युवराज विद्युन्माली राज्य का संचालन करने लगे। राजा इन्द्र ने भाई पर विश्वास कर, राज्य की सम्पूर्ण व्यवस्था उसे ही सौंप दी और आप विषय भोग तथा मनोरंजन में ही रहने लगे। राजा को भोगमग्न जान कर विद्युन्माली की दुर्बुद्धि जाग्रत हुई । वह प्रजा की बहू-बेटियों का अपहरण कर के दुराचार करने लगा। उसके दुराचार से नागरिकों में क्षोभ एवं रोष उत्पन्न हुआ। प्रजा के अग्रगण्य महाजन, राजा इन्द्र के पास आये और विद्युन्माली के दुराचार की कहानी सुना कर, उस पर अंकुश लगाने की प्रार्थना की। राजा ने प्रजा के प्रतिनिधि महाजन को आश्वासन दे कर बिदा किया और भाई को एकान्त में बुला कर उचित शिक्षा दी। किन्तु दुर्मद विद्युन्माली नहीं माना और राजा से ही ईर्षा रखने लगा। उसने राजा को हटा कर खुद राज्याधिकार हड़पने का षड्यन्त्र रचा। राजा को भाई के विद्रोह का संकेत मिला, तो वह सावधान हो गया। राजा को सावधान देख कर विद्रोही विद्युन्माली वहाँ से निकल कर अन्यत्र चला गया
+ इसका उल्लेख पृ. ४३७ पर हुआ है।
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