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तीर्थंकर चरित्र
बालिजी ने घाती - कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त किया और अघाती कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया ।
तारा के लग्न और साहसगति का प्रपंच
वैताढ्य पर्वत पर के ज्योतिपुर नगर में ' ज्वलनशिख' नाम का विद्याधर राजा था । उसकी श्रीमती रानी से 'तारा' नामकी पुत्री का जन्म हुआ । वह उत्कृष्ट एवं अनुपम सुन्दरी थी । उसके रूप की महिमा दूर-दूर तक पहुँच गई थी । चक्रांक नाम के विद्याधर राजा के पुत्र साहसगति ने राजकुमारी तारा को देखा। उसके रूप-यौवन पर वह मुग्ध हो गया । उसने राजा ज्वलनशिख के पास राजदूत भेज कर तारा की याचना की । उधर वानरपति राजा सुग्रीव ने भी अपना दूत भेज कर यही याचना की । ज्वलनशिख की दृष्टि में दोनों याचक जाति सम्पन्न, रूप, पराक्रम और वैभव - सम्पन्न थे । दोनों में से किसकी मांग स्वीकार की जाय -- यह प्रश्न राजा के सामने उपस्थित हुआ । उसने ज्योतिषशास्त्री से दोनों याचक-पात्रों का भविष्य पूछा ? ज्योतिषी ने कहा--' साहसगति अल्पायु है और सुग्रीव दीर्घायु है ।' यह सुन कर ज्वलनशिख ने सुग्रीव के साथ तारा के लग्न कर दिये । निराश साहसगति मन ही मन जलने लगा । सुग्रीव और तारा के भोगफल के रूप में ' अंगद ' और ' जयानंद' नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। वे प्रतापी एवं दिग्गज हुए । साहसगति तारा को भूल नहीं सका । वह तारा को प्राप्त करने के उपाय खोजने लगा । उसने निश्चय किया कि चाहे बल से हो या छल से, मैं तारा को प्राप्त करके ही रहूँगा । उसने क्षुद्र हिमाचल की गुफा में रह कर रूप परावर्तनी विद्या की साधना प्रारंभ की ।
रावण का दिग्विजय
रावण ने दिग्विजय करने के लिए लंका से प्रयाण किया । अन्य द्वीपों में रहे हुए विद्याधर राजाओं को वश में करता हुआ वह पाताल - लंका में आया । उसकी बहिन शूर्पणखा के पति 'खर' विद्याधर ने रावण को मूल्यवान् भेंट दे कर रावण का स्वामीत्त्व स्वीकार किया । अब रावण, महाराजा इन्द्र को जीतने के लिए आगे बढ़ा। उसके साथ
• खर भी अपनी सेना ले कर चला और किष्किन्धापति सुग्रीव भी साथ हो गया । विशाल
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