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________________ रावण का उपद्रव और बालि महर्षि की मुक्ति दवाया था, किंतु उसके मन में भय अवश्य था, इसीलिए उसने अपने भाई को मेरे अधीन कर के खद ने प्रव्रज्या ले ली, परंतु अब भी मेरे प्रति इसका वैरभाव है. इसीसे इसने मेरा विमान रोका । मैं इसे इसकी दाटता का मजा चखाता हूँ'-इस प्रकार विचार कर दशानन, ध्यानस्थ मुनि को कट सहित । उठा कर समुद्र में फेंकने लगा। मुनिराज ने दशानन की अधमता और उससे होने वाले जीवों के संहार का विचार कर अपने पांव का अंगुठा दवाया। उनके दबाते ही दशानन गिर पड़ा और उसका शरीर दब कर संकुचित हो गया। हाथ-पांव आदि में गंभीर आघात लगा ! वह रक्त-वमन करने लगा। उसे मृत्यु निकट दिखाई देने लगी। उसके हृदय से करुणापूर्ण चित्कार निकल गई और वह रोने लगा । उसका रोना सुन कर दया के भण्डार महर्षि ने अपना अंगुठः हटा लिया। रावण बड़ी कठिनाई से उठ कर स्वस्थ हुआ। उसके रोने के कारण उस दिन से उसका नाम 'रावण' हो गया। रावण को अपनी भूल दिखाई दी। वह समझ गया कि मुनिश्वर तो क्षमा के सागर हैं । मैं स्वयं अधन हूँ। उसने ऋषिश्वर के चरणों में गिर कर वन्दना की और क्षमा याचना की। फिर वह अपने अभीष्ट की ओर चल दिया * । महामुनि श्री • श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी लिखते हैं कि रावण अपनी सहस्र विद्या के बल से पृथ्वी फाड़ कर नीचे घुसा और अष्टापद गिरि को उठा कर समुद्र में डालने का प्रयत्न करने लगा। पर्वत उठाते ही सारा वातावरण भयानक बन गया । व्यतर त्रस्त हो गए । समुद्र के क्षुब्ध होकर छलकने से रसातल जलपूरित होने लगा। पर्वत पर से गिरते हुए पत्थरों से हाथी भयभीत हो गए। वृक्ष टूटने लगे, इत्यादि । * आचार्यश्री हेमचन्द्रीजी लिखते हैं कि रावण ने अष्टापद पर्वत पर भरत चक्रवर्ती नरेश के बनाये जिन-बिबों की पूजा की और अपने हाथों में से नसों को निकाल कर, हाथ की ही वीणा बनाई और भक्तिपूर्वक बजाने लगा। उसकी रानियें मनोहर गान करने लगी। उस समय धरणेन्द्र भी तीर्थ की वन्दना करने वहां आया और रावण की अनुपम भक्ति से प्रसन्न हो कर अमोषविजया शक्ति' और 'रूपविकारिणी विद्या' प्रदान की। उपरोक्त कथन में भरतेश्वर के समय के बिंबों का करोड़ों सागरोपम तक रहना बतलाया, यह सर्वथा अशक्य है। सिद्धांत में उत्कृष्ट स्थिति संख्येय काल की बतलाई है (भगवती श.८ उ.९) इस से अधिक कोई बिब, मूर्ति या पत्थरादि की वस्तु नहीं रह सकती । तब करोड़ों सागरोपम तक रहना अविश्वसनीय ही है और न इस कथन में किसी आगम का आधार हो । हाथों में से नस निकाल कर और हाथ ही की बीणा बना कर बजाना आदि वर्णन भी समझ में नहीं आता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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