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रक्षक होगी। हमारी चिन्ता नहीं करें ।" युधिष्ठिरजी ने प्रियंवद को लौटने की आज्ञा दी ।
सावधान रहो
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प्रियंवद ने सभी को प्रणाम किया । कुन्तीदेवी ने रानी मात्री से विशेष रूप से कहलाया -.
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'बहिन से कहना कि वह प्रसन्न रहे, स्वामी को भी प्रसन्न और संतुष्ट रखे और हमारी ओर से निश्चिन्त रहे ।"
द्रौपदी को दुर्योधन पर विशेष रोष था और उसे अपने स्वामियों की उस समय की निष्क्रियता भी खटक रही थी -- जब उसे साम्राज्ञी -पद से गिरा कर दासी बना दिया था और भरी सभा में उसका असह्य अपमान किया था । वह उबल उठी और बोली ; - "भाई प्रियंवद ! दुष्ट दुर्योधन ने कपट एवं षड्यन्त्रपूर्वक हमारा राज्य ले लिया । मुझे भरी सभा में अपमानित किया और हमें वनवासी बना दिया । इतना करने के बाद भी वह अधम, अभी तक संतुष्ट नहीं हुआ और हमें समाप्त करने पर तुला हुआ है । में तो स्पष्ट कहूँगी कि यह सारा दोष मेरे स्वामियों का है। दुष्ट दुःशासन ने मुझे केश पकड़ कर घसीटी और भर-सभा में मुझे नंगी करने लगा और ये सब महाबली, मूर्ति के समान निस्पन्द और शक्तिहीन हो कर देखते रहे । माता को भी सोचना चाहिए कि इनके ये पुत्र कैसे गौरवहीन बन गए -- उस दिन, जो अपनी पत्नी की भरी सभा में लाज लूटते देखते रहे। ऐसी हीनतम स्थिति में तो एक कुलहीन, गौरव-हीन और सत्वहीन पति भी चुप नहीं रहता, तब ये कैसे निस्पन्द बैठे देखते रहे ?"
6.
द्रोपदी की बात सुन कर कुन्तीदेवी बोली-
'बहूरानी ! तुम्हारा कहना यथार्थ है । यह युधिष्ठिर ही ऐसा धर्मात्मा और सत्यनिष्ठा वाला है कि सब कुछ सहन करता है । अन्यथा भीम, अर्जुन आदि चारों भाई, उन दुष्टों को अपनी अधमाधमता का दण्ड उसी सभा में दे देते । किन्तु इनके लिए भी इस धर्मराज का प्रतिबन्ध बाधक बन गया ।" -- इतना कहने के बाद युधिष्ठिर से बोली-" पुत्र ! तुझे इतनी - साधु जैसी -- क्षमा और सहनशीलता नहीं रखनी चाहिए। अब भी सोच और अपनी भिखारी जैसी स्थिति देख । तेरी ऐसी वृत्ति के कारण ही ये सब सुखों के शिखर से गिर कर दुःखों के गहरे गड्ढे में पड़े और यह इन्द्रानी के समान गृहलक्ष्मी भिखारन जैसी बन गई । यह सब देख कर भी तू अपना आग्रह नहीं छोड़ता । ऐसा कैसा धर्मात्मापन ? "
कुन्तीदेवी के मुखकमल पर भी आवेश की लालिमा झलक आई । उसके प्रभाव
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